असम की 6 लड़कियों की सफलता: जलकुंभी से बनाया योगा मैट, कमाई के साथ 100 महिलाओं को दिया रोजगार

कठिन परिस्थितियाँ आपको दो मौके देती हैं। इन मौकों में या तो आप टूट जाते हैं या चमकते हैं। ऐसी ही कहानी है असम के एक मछुआरे परिवार की लड़कियों की, जिन्होंने जलकुंभी से निपटने का ऐसा तरीका खोजा, जिससे अपने साथ पूरे गांव की ज़िंदगी सवंर रही है।
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डेस्क न्यूज़- कठिन परिस्थितियाँ आपको दो मौके देती हैं। इन मौकों में या तो आप टूट जाते हैं या चमकते हैं। ऐसी ही कहानी है असम के एक मछुआरे परिवार की लड़कियों की, जिन्होंने जलकुंभी से निपटने का ऐसा तरीका खोजा, जिससे अपने साथ पूरे गांव की ज़िंदगी सवंर रही है।

जलकुंभी के कारण उत्पन हो गई थी कई समस्याएँ

असम की दीपोर बील झील अपने मीठे पानी और प्रवासी पक्षियों के लिए जानी जाती है। कई मछुआरों का जीवन 100 वर्षों से इस झील पर निर्भर है, लेकिन जलकुंभी के कारण उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। साथ ही झील का पारिस्थितिकी तंत्र भी बिगड़ रहा था। इस समस्या से निपटने के लिए मछुआरे परिवार की 6 लड़कियां जलकुंभी फाइबर से बैग, टोकरी, कुशन कवर और बायोडिग्रेडबल योग मैट सहित लगभग 18 पर्यावरण के अनुकूल उत्पाद बना रही हैं। इन उत्पादों को देश-विदेश में कई जगह पसंद किया जा रहा है। आइए जानते हैं उन लड़कियों की कहानी जिन्होंने झील की समस्या से निजात दिलाने के साथ ही गांव की 100 से ज्यादा महिलाओं को रोजगार भी दिलाया।

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झील की समस्या को बनाया गांव की ताकत

फर्स्ट ब्रिटिश गवर्नर की पत्नी लेडी हेस्टिंग्स द्वारा जलकुंभी को पहली बार भारत लाया गया था। फिर यह अपनी सुंदरता के कारण भारत में आया, लेकिन आज यह कई झीलों और तालाबों के लिए परेशानी का कारण बन गया है। यह रुके हुए पानी में तेजी से बढ़ता है और पानी से ऑक्सीजन खींचता है, जिससे झील में मछलियां और अन्य जलीय जीव मर जाते हैं।

ऐसा ही हाल दीपोर झील का भी हो गया था। असम के गुवाहाटी के दक्षिण-पश्चिम में स्थित दीपोर बील नाम की एक झील है, जो पक्षी वन्यजीव अभयारण्य के लिए जानी जाती है। यह झील 9 गांवों के मछुआरों की रोजी-रोटी का जरिया भी है। पिछले कुछ वर्षों से जलकुंभी का जलस्तर लगातार बढ़ रहा था, जिससे मछुआरों का जीवन प्रभावित हो रहा था। इस समस्या से निपटने के लिए मिताली दास, मैनु दास, सीता दास, ममोनी दास, रूमी दास और भनीता दास ने पहल की।

NECTAR ने उनके काम में की थीं बहुत मदद

यहां के लोग पहले भी जलकुंभी की मदद से कई चीजें बनाते थे। इन लड़कियों की दिलचस्पी को देखते हुए नॉर्थ ईस्ट सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी एप्लीकेशन एंड रीच (NECTAR) ने उनकी बहुत मदद की। NECTAR ने इन लड़कियों को जलकुंभी से बेहतर उत्पाद बनाने के लिए प्रशिक्षित किया और उन्हें लूम्स भी दिए। मछुआरे परिवार की एक लड़की मिताली दास कहती हैं कि, "झील की घास से कुछ बनाना कोई नई बात नहीं है। बहुत से लोग इससे कुछ न कुछ बनाते हैं।

इनमें से मछली पकड़ने के जाल बहुत आम हैं, लेकिन हम कुछ ऐसा करना चाहते थे जो लोगों के जीवन को बदल सके। हम पहले से ही बुनाई जानते थे और जलकुंभी से कच्चा माल निकालना सीखते थे। इस काम में ऋतुराज देवन और नेक्टर ने हमारी बहुत मदद की।" ये लड़कियां अब जलकुंभी की मदद से कई बायोडिग्रेडबल उत्पाद बेहद कम कीमत में आसानी से बना रही हैं, जिनमें से योगा मैट लोगों को खूब पसंद आ रहा है।

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12 किलो जलकुंभी से बनती है एक योगा मैट

योगा मैट बनाने के लिए सबसे पहले जलकुंभी के खरपतवारों को काटकर धूप में सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया में करीब 15 दिन का समय लगता है। एक योगा मैट बनाने में 2 किलो फाइबर लगता है, जो लगभग 12 किलो जलकुंभी के खरपतवार को सुखाने के बाद प्राप्त होता है। मिताली दास कहती हैं, "आमतौर पर हम जलकुंभी से धूप में रेशे निकालने का काम करते हैं, लेकिन असम में बारिश बहुत होती है। ऐसे में जलकुंभी को सुखाने के लिए सोलर ड्रायर की मदद ली जाती है। 10 किलो जलकुंभी को सोलर ड्रायर से सुखाने में 24 घंटे का समय लगता है। 12 किलो जलकुंभी सूखने पर दो किलो हो जाती है। इस दो किलो सूखे जलकुंभी से लगभग एक योगा मैट तैयार किया जाता है।

योग मैट की सिलाई के लिए काले, लाल और हरे रंग के धागों का उपयोग किया जाता है। बता दें कि, मिताली और उनकी टीम ने दीपोर झील का दौरा करने वाले प्रवासी पक्षी मूरहेन के नाम पर योगा मैट का नाम 'मुरहेन योग मैट' रखा है। इन लड़कियों ने अपने प्रोजेक्ट का नाम सीमांग रखा है। मिताली और उनकी टीम ने दीपोर झील में आने वाले माइग्रेटरी बर्ड मूरहेन के नाम पर योगा मैट को 'मूरहेन योगा मैट' रखा है। इन लड़कियों से अपने प्रोजेक्ट का नाम सीमांग (Seemang) रखा है।

गांव की 100 महिलाओं को दिया रोजगार

मिताली दास बताती हैं कि जब उन्हें और अन्य लड़कियों को जलकुंभी से रेशे के बारे में पता चला, तो उन्होंने सोचा कि जितना उत्पाद बनाया जाएगा, वह झील की सफाई के साथ-साथ पैसे कमाने का भी जरिया होगा। मिताली कहती हैं, "सबसे पहले हम 6 लड़कियों ने 2018 में ट्रेनिंग ली, उसके बाद हमने गांव की महिलाओं को ट्रेनिंग दी। आज हमारे गांव की करीब 100 महिलाएं इस काम में माहिर हैं। सीमांग में काम करने से हर महिला हर महीने करीब 6 से 8 हजार रुपए कमाती है और अगर कोई ओवरटाइम करना चाहे तो 10 से 12 हजार रुपए कमाती है। मिताली के मुताबिक वह इस काम में और महिलाओं को जोड़ने का काम कर रही हैं। जिससे ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को रोजगार मिल सके।

सीमांग के उत्पादों की विदेशों में भी मांग

सीमांग में बनने वाले उत्पादों की मांग देश-विदेश में है। मिताली का कहना है कि 2019 में उन्हें पहला ऑर्डर स्विट्जरलैंड के एक डिजाइनर से मिला था। तब 8 उत्पादों के 60 पीस का ऑर्डर मिला था। जिसे हमने 3 महीने में तैयार किया था। इससे हमने बहुत पैसा कमाया। इसके बाद हमने अपने उत्पाद जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका को भी भेजे हैं। मिताली आगे कहती हैं कि कोरोना के दौर में उनकी कमाई पर असर पड़ा, लेकिन बाद में दोबारा ऑर्डर मिलने लगे।

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