UP ELECTION 2022: बहुजन समाज पार्टी सपा और भाजपा की बजाय कांग्रेस पर ज्यादा हमलावर क्यों रहती है?

एक इंटरव्यू में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने चुनाव सिर पर होने के बावजूद बीएसपी नेता मायावती की राजनीतिक खामोशी पर हैरानी जताई तो बीएसपी नेता मयावती ने एक के बाद एक कई ट्वीट करते हुए कांग्रेस पार्टी को ‘वोटकटवा’ कहते हुए अपने मतदाताओं को उसे वोट देने की बजाय बीएसपी को वोट देने की अपील की. क्या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी भी लड़ाई में आमने-सामने दिख रही हैं?
UP ELECTION 2022: बहुजन समाज पार्टी सपा और भाजपा की बजाय कांग्रेस पर ज्यादा हमलावर क्यों रहती है?
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उत्तर प्रदेश में जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, ऐसा लग रहा है कि मुख्य लड़ाई अब बीजेपी गठबंधन और समाजवादी पार्टी गठबंधन में ही है, लेकिन राज्य में सक्रिय दो और पार्टियां यानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी भी लड़ाई में आमने-सामने दिख रही हैं और वो भी एक-दूसरे के खिलाफ. मुख्य धारा की लड़ाई में फिलहाल दोनों नहीं दिख रही हैं.

एक इंटरव्यू में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने चुनाव सिर पर होने के बावजूद बीएसपी नेता मायावती की राजनीतिक खामोशी पर हैरानी जताई तो बीएसपी नेता मयावती ने एक के बाद एक कई ट्वीट करते हुए कांग्रेस पार्टी को ‘वोटकटवा’ कहते हुए अपने मतदाताओं को उसे वोट देने की बजाय बीएसपी को वोट देने की अपील की.

हालांकि राजनीतिक पंडित तो इन दोनों ही पार्टियों को इस बार के विधानसभा चुनाव में वोटकटवा ही बता रहे हैं.

इसकी वजह ये है कि बीएसपी की उपस्थिति जहां ग्राउंड पर अभी भी दमदार है यानी उसका एक समर्पित मतदाता वर्ग अब भी उससे दूर नहीं दिख रहा है लेकिन पार्टी नेता मायावती और दूसरे नेता बाहर यानी चुनावी अभियान में उतने सक्रिय नहीं दिख रहे हैं.

वहीं कांग्रेस पार्टी का जमीनी संगठन खंड खंड हो चुका है और पार्टी की जो भी उपस्थिति दिख रही है, वह सिर्फ ऊपरी तौर पर ही दिख रही है. यही नहीं, पार्टी के बचे-खुचे नेता भी साथ छोड़ दे रहे हैं या फिर उन्हें पार्टी से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया जा रहा है. लेकिन संगठन स्तर पर बेहद कमजोर होने के बावजूद बाहर उसकी सक्रियता जमकर दिख रही है. यह सक्रियता न सिर्फ अभी यानी चुनाव के वक्त, बल्कि पिछले पांच साल से लगातार दिख रही है.

बीएसपी पर ये आरोप भी लगते रहे कि वो केंद्र सरकार की एजेंसियों- मसलन, सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों के जांच के डर से जमीन पर सक्रिय नहीं रही और चुनाव नजदीक होने के बावजूद उसकी सक्रियता नजर नहीं आ रही है. ऐसे में पार्टी का कोर मतदाता भी उलझन में है कि वो इस चुनाव में भी बीएसपी के साथ ही खड़ा रहे या फिर दूसरी पार्टियों की ओर रुख करे. दलित मतदाताओं में भी बीजेपी काफी हद तक सेंध लगा चुकी है लेकिन करीब 11 फीसद जाटव मतदाता अभी भी अपनी पहली पसंद के तौर पर बीएसपी को ही देखता है. लेकिन यदि इस बार बीएसपी के इस वोट बैंक में सेंध लगी, तो जिस पार्टी की ओर ये मतदाता जाएगा, उस पार्टी का तो फायदा होगा लेकिन बीएसपी को दोहरा नुकसान होगा. क्योंकि कोर वोट बैंक तो खिसकेगा ही, जो अतिरिक्त वोट उसे मिलते थे, उसकी संभावना भी अब नजर नहीं आ रही है.

हालांकि बीएसपी ने अब तक जो टिकट वितरण किए हैं, उनमें अल्पसंख्यक समुदाय को काफी तवज्जो दी गई है और अल्पसंख्यक समुदाय भी बीएसपी का समर्थक रहा है इस बार उसका रुझान बीएसपी की ओर नहीं दिख रहा है. अल्पसंख्यक समुदाय भी नब्बे के दशक से पहले कांग्रेस पार्टी का समर्थक हुआ करता था

लेकिन मंदिर-मस्जिद विवाद और कांग्रेस के कमजोर होने के बाद उसने सपा और बीएसपी की ओर रुख कर लिया.यानी दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक मतों के गठजोड़ या सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बीएसपी ने अब तक जो कई बार सरकारें बनाईं और संसद में भी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराती रही, उस वोट बैंक के कांग्रेस की ओर खिसकने का उसे अंदेशा है.

राजनीतिक जगत में यह भी चर्चा है कि कांग्रेस अपनी जमीनी सक्रियता से खुद को 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार कर रही है, 2022 के विधानसभा चुनाव को तो महज रिहर्सल के तौर पर ही ले रही है. इस बात में सच्चाई भी हो सकती है और लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते बीजेपी के विकल्प के तौर पर उसे यूपी में इसका लाभ भी मिल सकता है.

लेकिन बीएसपी के लिए तो 2022 के विधानसभा चुनाव बेहद निर्णायक होने वाले हैं. यदि इस बार उसके समर्पित मतदाताओं ने अपना रुझान बदला तो अगले चुनावों में बीएसपी का राजनीतिक भविष्य अंधकारमय हो सकता है. बीएसपी को आशंका है कि यह मतदाता यदि उसका साथ छोड़ेगा तो कांग्रेस की ओर ही जाएगा और कांग्रेस भी शायद इसी इंतजार में है कि ऐसा हो तो यूपी में उसके भी अच्छे दिन आ जाएंगे.

यह पहला मौका नहीं है जबकि बीएसपी कांग्रेस पर हमलावर हुई है बल्कि कांग्रेस के खिलाफ वह अक्सर इस तरह के आक्रामक मूड में रहती है. और यह स्थिति तब है जबकि कांग्रेस पार्टी पिछले तीन दशक से यूपी में सत्ता से बाहर है. बहुजन समाज पार्टी की नाराजगी गाहे-बगाहे भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ भी दिखती है लेकिन उसमें वह तल्खी नहीं रहती जो कि कांग्रेस के खिलाफ रहती है.

वहीं दूसरी ओर, बीजेपी भी अक्सर कांग्रेस पर ही ज़्यादा हमलावर रहती है जबकि यूपी में राजनीतिक तौर पर उसकी मुख्य लड़ाई या तो समाजवादी पार्टी से है या फिर बहुजन समाज पार्टी से है. हालांकि पांच साल पहले यूपी में भारतीय जनता पार्टी की भी स्थिति ऐसी थी जैसी कि उस वक्त कांग्रेस पार्टी की. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 47 और कांग्रेस को 37 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

बीजेपी नेता पहले राहुल गांधी पर और फिर प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के बाद उन पर काफी हमलावर रहते हैं और तंज कसते हैं कि यूपी में ये लोग ‘राजनीतिक पर्यटन’ के लिए आते हैं. हालांकि प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से चालीस फीसद महिलाओं को टिकट देने की वकालत की और ‘बेटी हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा दिया है, वो न सिर्फ जमीन पर काम कर रहा है बल्कि दूसरी पार्टियों के ऊपर भी एक तरह से महिलाओं को ज्यादा संख्या में टिकट का दबाव बनाया है.

कांग्रेस पार्टी ने इस पर अमल करते हुए अब तक घोषित उम्मीदवारों में से चालीस फीसद टिकट महिलाओं को दिया है और खासकर उन महिलाओं को जिन्होंने संघर्ष किया और संघर्ष के जरिए एक मुकाम हासिल किया. इन महिलाओं में उन्नाव में रेप पीड़ित लड़की की मां और किसान आंदोलन में सक्रिय रहीं पूनम पंडित भी शामिल हैं.

दरअसल, बीएसपी को कांग्रेस से इस बात का डर रहता है कि वो कहीं उसके कोर वोट बैंक यानी दलित वोट को अपनी तरफ़ न खींच ले. इसकी वजह ये है कि नब्बे के दशक में यूपी में बीएसपी के राजनीतिक उभार से पहले यह वर्ग मुख्य रूप से कांग्रेस को वोट करता था. लेकिन बाद में यह वर्ग बीएसपी का लगभग स्थाई वोटर बन गया और साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने सबसे कमजोर राजनीतिक प्रदर्शन की स्थिति में भी इसी वोट बैंक की बदौलत बीएसपी ने करीब 22 फीसद मत पाने में सफल रही.

पिछले साल अयोध्या से शुरू करके और पूरे राज्य में प्रबुद्ध सम्मेलनों के जरिए जब बीएसपी ने ब्राह्मण समुदाय को अपनी ओर करने की कोशिश की और बीजेपी पर ब्राह्मणों के उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए हमलावर हुई तो ऐसा लगा कि शायद 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से लड़ने की स्थिति में मुख्य रूप से वही रहेगी क्योंकि राज्य के नाराज ब्राह्मण वोटों के उसकी ओर झुकाव के कारण यह संभावना प्रबल दिख रही थी.

लेकिन अचानक बहुजन समाज पार्टी की सक्रियता कम हो गई, पार्टी के बचे-खुचे नेता भी समाजवादी पार्टी की ओर रुख करने लगे और बीएसपी से बीजेपी में गए नेताओं की वापसी बीएसपी की बजाय जब सपा में होने लगी तो बीएसपी लड़ाई से बाहर दिखने लगी. बहुजन समाज पार्टी में आज मायावती और सतीश चंद्र मिश्र के सिवाय कोई भी पुराना और कद्दावर नेता नहीं बचा है.

स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, इंद्रजीत सरोज, रामवीर उपाध्याय जैसे पार्टी के कई कद्दावर नेता आज दूसरी पार्टियों में हैं. जहां तक कोर वोट बैंक का सवाल है तो तो पिछले पांच साल के दौरान यूपी में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएं हुईं लेकिन बीएसपी नेता मायावती ने महज ट्विटर पर संवेदना जताने के अलावा पीड़ित परिवारों से मिलने नहीं गईं.

जबकि प्रियंका गांधी ऐसी घटनाओं के बाद सबसे पहले पहुंचने वाली नेता बन गईं. चाहे सोनभद्र का उभ्भा कांड हो या फिर हाथरस की घटना हो, प्रियंका गांधी न सिर्फ सबसे पहले पहुंचीं बल्कि इस दौरान पुलिस-प्रशासन ने जब उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने सत्याग्रह भी किया. दलित समुदाय के लोग प्रियंका गांधी की इस सक्रियता की वजह से कांग्रेस पार्टी के करीब आने लगे.

इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी की सक्रियता ने भी बीएसपी की नींद हराम कर रखी है क्योंकि भीम आर्मी ने पिछले कुछ सालों में संघर्ष के जरिए दलित वर्ग और खासकर युवाओं में अपनी अच्छी पैठ बनाई है. बीएसपी नेता मायावती भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर को भी अपना आशंका भरी निगाहों से देखती हैं और चंद्रशेखर की तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी पार्टी से तालमेल नहीं किया.

समीरात्मज मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. लंबे समय तक बीबीसी में संवाददाता रहे हैं. इस समय जर्मनी के पब्लिक ब्रॉडकास्टर डीडब्ल्यू से जुड़े हैं और यूट्यूब चैनल ‘द ग्राउंड रिपोर्ट’ के संपादक हैं.

ये एना​लेसिस यूपी चुनाव को लेकर बन रही श्रृंखला का पहला लेख है, इस श्रृंखला में आगे भी यूपी चुनाव 2022 के राजनैतिक समीकरणों और जनता के रुझान को लेकर के समीक्षा निंरतर जारी रहेगी।

(यह लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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