कल्याण सिंह ऐसा नाम जिसके बिना अयोध्या मंदिर और यूपी में बीजेपी का उत्थान संभव नही होता

उत्तरप्रदेश की राजनीतिक इतिहास में हम उस शख्स के बारें में आज हम आपको बताएंगे जिनका नाम बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में प्रमुखता से लिया जाता है
कल्याण सिंह ऐसा नाम जिसके बिना अयोध्या मंदिर और यूपी में बीजेपी का उत्थान संभव नही होता
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उत्तरप्रदेश की राजनीतिक इतिहास में हम उस शख्स के बारें में आज हम आपको बताएंगे जिनका नाम बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में प्रमुखता से लिया जाता है। जब बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना घट रही थी तब मुख्यमंत्री के कमरे के बाहर उनके प्रधान सचिव योगेंद्र नारायण भी मौजूद थे। और मुख्यमंत्री थे कल्याण सिंह, वहाँ मौजूद सब लोगों को भोजन परोसा जा रहा था।

अचानक सबने देखा कि कई कार सेवक बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए और कुदालों से उसे तोड़ने लगे। हांलाकि वहाँ पर्याप्त संख्या में अर्ध सैनिक बल तैनात थे, लेकिन कारसेवकों ने उनके और बाबरी मस्जिद के बीच एक घेरा सा बना दिया था, ताकि वो वहाँ तक पहुंच न पाएं। उस समय कल्याण सिंह के प्रधान सचिव रहे योगेंद्र नारायण बताते हैं, 'तभी उस समय उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक एस एम त्रिपाठी भागते हुए आए और उन्होंने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से तुरंत मिलने की अनुमति मांगी। जब मैंने अंदर संदेश भिजवाया तो मुख्यमंत्री ने उन्हें भोजन समाप्त होने तक इंतज़ार करने के लिए कहा।'

वो कहते हैं, 'थोड़ी देर बाद जब त्रिपाठी अंदर गए तो उन्होंने उन्हें देखते ही कार सेवकों पर गोली चलाने की अनुमति मांगी, ताकि बाबरी मस्जिद को गिरने से बचाया जा सके। कल्याण सिंह ने मेरे सामने उनसे पूछा कि अगर गोली चलाई जाती है तो क्या बहुत से कार सेवक मारे जाएंगे? कल्याण सिंह ने तब उनसे कहा कि 'मैं आपको गोली चलाने की अनुमति नहीं दूंगा। आप दूसरे माध्यमों जैसे लाठीचार्ज या आँसू गैस से हालात पर नियंत्रण करने की कोशिश करिए।'

योगेंद्र नारायण आगे कहते हैं, 'डीजीपी ये सुन कर वापस अपने दफ़्तर लौट गए। जैसे ही बाबरी मस्जिद की आखिरी ईंट गिरी, कल्याण सिंह ने अपना राइटिंग पैड मंगवाया और अपने हाथों से अपना त्याग पत्र लिखा और उसे ले कर खुद राज्यपाल के यहाँ पहुंच गए।' यूपी राजनीति की प्रयोगशाला है। यहां पर नित नए-नए एलीमेंट बनते रहते हैं। इसी प्रयोगशाला से निकला था बिल्कुल सल्फ्यूरिक एसिड, जो दूसरों पर गिरे तो जलाए, खुद पर गिरे तो गलाए – कल्याण सिंह। नाम तो सुना ही होगा।

कल्याण सिंह उस वक्त की राजनीति याद करने की दो वजह

पहली 'नकल अध्यादेश', जिसके दम पर वो गुड गवर्नेंस की बात करते थे। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री। बोर्ड परीक्षा में नकल करते हुए पकड़े जाने वालों को जेल भेजने के इस कानून ने कल्याण को बोल्ड एडमिनिस्ट्रेटर बना दिया। यूपी में किताब रख के चीटिंग करने वालों के लिए ये काल बन गया।

दूसरी है बाबरी मस्जिद विध्वंस। ये हिंदू समूहों का ड्रीम जॉब था। इसके लिए 425 में 221 सीटें लेकर आने वाली कल्याण सिंह सरकार ने अपनी कुर्बानी दे दी। हिंदू हृदय सम्राट बनने के लिए। सरकार तो गई पर संघ की आइडियॉलजी पर कल्याण खरे उतरे थे। रुतबा भी उसी हिसाब से बढ़ा था। दो ही नाम थे उस वक्त- केंद्र में अटल बिहारी और यूपी में कल्याण सिंह।

 1997 में कल्याण सिंह दोबारा मुख्यमंत्री बने

पहला भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से पंगा। जिसमें वाजपेयी तक को कह दिया कि पहले एमपी बन पाएंगे तभी तो पीएम बनेंगे।दूसरा अपनी पारिवारिक मित्र कुसुम राय के लिए। जिसमें भाजपा में पार्षद रहीं कुसुम प्रशासन में जो चाहे कर सकती थीं। कल्याण के चलते कोई कुछ नहीं बोल सकता था। बाद में कल्याण सिंह भाजपा से निकाल दिए गए। कुसुम भी गईं। पर बाद में कुसुम भाजपा से ही राज्यसभा सांसद बनीं। कल्याण भी भाजपा में आए, सांसदी लड़े, हारे और फिर पार्टी छोड़ दी।

कल्याण सिंह ने यूपी की राजनीति को राजनाथ दिए।। वो कैसे? इसके लिए अब आपको ले चलते हैं साल 1962 में। अलीगढ़ की अतरौली सीट। 30 साल का लोध समाज का लड़का जनसंघ से चुनाव लड़ता है। हारता है। पर हार नहीं मानता। पांच साल बाद फिर चुनाव होते हैं। इस बार वो कांग्रेस प्रत्याशी को 4,000 वोटों से हरा देता है। इसके बाद वो यहां से 8 बार विधायक बनता है।

ये वो दौर था जब यूपी में चौधरी चरण सिंह ने एंटी-कांग्रेस राजनीति खड़ी की और सफलता भी पाई। उसी वक्त हिंदुस्तान में ग्रीन रिवोल्यूशन हुआ। वेस्ट यूपी में किसानों की स्थिति मजबूत हुई। इनमें से ज्यादातर किसान OBC थे। कल्याण सिंह बड़े आराम से जनसंघ में पिछड़ी जातियों का चेहरा बनने लगे। 1977 में जब जनता सरकार बनी तो इसमें पहली बार पिछड़ी जातियों का वोट शेयर लगभग 35 प्रतिशत था।

1967 में चुनाव जीता और लगातार 1980 तक विधायक रहे

कल्याण सिंह ने पहली बार अतरौली विधान सभा इलाके से 1967 में चुनाव जीता और लगातार 1980 तक विधायक रहे। 1980 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह को कांग्रेस के टिकट पर अनवर खां ने पहली बार पराजित किया। लेकिन भाजपा की टिकट पर कल्याण सिंह ने 1985 के विधानसभा चुनाव में फिर कामयाबी हासिल की। तब से लेकर 2004 के विधानसभा चुनाव तक कल्याण सिंह अतरौली से विधायक रहे।

इमरजेंसी के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी छवि सुधारने की कोशिश की। जनसंघ से भाजपा बन गई। पर 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की बुरी हार हुई। मात्र दो सीटें मिलीं। अटल खुद हार गए थे। इसके बाद भाजपा को एक नया मुद्दा मिल गया। यूपी ने दिया। अयोध्या मंदिर का मुद्दा। उसी वक्त शाह बानो प्रकरण हुआ जिसमें मुस्लिम समाज के दबाव में आकर केंद्र में कांग्रेस की सरकार ने संविधान में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया। फिर इसी सरकार ने हिंदुओं के तुष्टीकरण के लिए विवादित अयोध्या मंदिर का ताला खुलवा दिया। अब भाजपा को राम मंदिर का मोहरा मिल गया। उन्होंने दबा के खेला भी। मुसलमानों के मुद्दे पर हिंदुओं को जाति भुलाकर एक होने का आह्वान किया जाने लगा।

राजनीति में जनता पार्टी, जन संघ और जनता दल की उठा पठक चलती रही। कहानी में अगला बड़ा मोड़ आया 1989-90 में जब देश में मंडल और कमंडल की सियासत शुरू हुई। आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का कैटेगराइज़ेशन हुआ और पिछड़ों की सियासी ताकत पहचानी गई।

टिकट बंटवारे पर नाराज होने  की परंपरा यहां से शुरू हुई

बनिया और ब्राह्मण पार्टी कही जाने वाली भाजपा ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण सिंह को बनाया और वादा किया गया गुड गवर्नेंस का। कल्याण सिंह की इस समय दो पहचान बन रही थी। वो हिंदू हृदय सम्राट के साथ लोधी राजपूतों के मुखिया भी बन रहे थे। भाजपा में महाराष्ट्र के ब्राह्मणों की जगह ओबीसी जातियों से आने वाले फायरब्रांड नेता सामने आने लगे और कल्याण इनके मुखिया बने। मुसलमानों से लड़ाई के नाम पर जातियां भुलाई जाने लगीं। पर जातियों का वर्चस्व खत्म तो नहीं हो रहा था। इन नए लोगों से नाराज अपर कास्ट के लोगों ने पार्टी के अंदर अपना वर्चस्व बनाने के लिए भीतर ही भीतर जंग छेड़ दी थी। उसी वक्त हर टिकट बंटवारे पर नाराज होने वाली भाजपाई परंपरा भी शुरू हो गई थी।

1991 में भाजपा 221 सीटें लेकर यूपी विधानसभा में आई लेकिन 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। 6 दिसंबर हिंदुस्तान के इतिहास का काला दिन था। 1993 में फिर चुनाव हुए। भाजपा के वोट तो बढ़े पर सीटें घट गईं। भाजपा सत्ता से बाहर ही रही। इसके दो साल बाद बसपा के साथ गठबंधन कर भाजपा फिर सत्ता में आई पर भाजपा का मुख्यमंत्री नहीं बना। पर देश की राजनीति बदल गई। केंद्र में कांग्रेस की सरकार बड़ी बेइज्जत हुई। अब दौर आया था अटल बिहारी वाजपेयी का। चारों ओर धूम मच गई – 'अबकी बारी अटल बिहारी'। केंद्र में भी माहौल चेंज हुआ और यूपी में भी।

उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन

यूपी में तेरहवीं विधानसभा का जन्म 17 अक्टूबर 1996 को हुआ था। लेकिन चुनाव नतीजों के बाद तस्वीर साफ़ नहीं हुई थी। 425 सीटों की विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी 173 सीटें हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी बनी। जबकि समाजवादी पार्टी को 108, बहुजन समाज पार्टी को 66 और कांग्रेस को 33 सीटें मिलीं। पर तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी भी राजनीति में मजा लेने आए थे। उन्होंने राष्ट्रपति शासन को छह महीने बढ़ाने के लिए केंद्र को सिफ़ारिश भेजी। इस पर भी क़ानूनी विवाद खड़ा हो गया क्योंकि राज्य में राष्ट्रपति शासन का पहले ही एक साल पूरा हो चुका था। आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय पर रोक लगाते हुए राष्ट्रपति शासन छह महीने बढ़ाने के केंद्र के फ़ैसले को मंज़ूरी दे दी।

इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ राजनीतिक समीकरणों के बनने-बिगड़ने का।  भाजपा और बसपा ने एक ऐसा गठजोड़ किया जिसकी हिंदुस्तान के इतिहास में पहले कोई मिसाल नहीं थी। दोनों पार्टियों ने छह-छह महीने राज्य का शासन चलाने का फ़ैसला किया। इससे पहले 1995 में भाजपा और बसपा ने सरकार बनाई थी। पर बाद में भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया था जिसकी वजह से राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। इस बार नया प्रयोग हुआ। अगड़ों की पार्टी और पिछड़ों की पार्टी का गठजोड़। जिसमें पहले छह महीनों के लिए 21 मार्च 1997 को मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। अगड़ों की पार्टी को थोड़ा इंतजार करना था। जाति से जूझते हिंदुस्तान में इस गठजोड़ के दसियों सोशियोलॉजिकल मतलब निकाले जा सकते हैं। ये स्टडी करने लायक गठजोड़ था।

पर मुख्यमंत्री के अलावा विधानसभा में एक और महत्वपूर्ण पद होता है। विधानसभा अध्यक्ष का। इसे लेकर दोनों पार्टियों में मतभेद हो गया। बाद में भाजपा के ही केसरीनाथ त्रिपाठी बने विधानसभा अध्यक्ष। और ये ऐसा फैसला था जिसने बाद में कई कांड किये। और इसी वजह से पता चला कि ये पद क्यों महत्वपूर्ण था। 21 सितंबर 1997 को मायावती के छह महीने पूरे हुए। और भाजपा के कल्याण सिंह ही मुख्यमंत्री बने। बहुत से नेताओं का जोर-जबर था कि ये ना बनें। पर हिंदू हृदय सम्राट का तमगा देकर पीछे हटना भी तो मुश्किल था। इसके बाद मायावती सरकार के अधिकतर फ़ैसले बदले गए। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद खुल कर सामने आने लगे। एक महीने के भीतर ही मायावती ने 19 अक्टूबर 1997 को कल्याण सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। राज्यपाल रोमेश भंडारी फिर सीन में थे। उन्होंने दो दिन के भीतर 21 अक्टूबर को कल्याण सिंह को अपना बहुमत साबित करने का फरमान दे दिया।

इन दो दिनों में यूपी की प्रयोगशाला में कई एक्सपेरिमेंट हुए। बसपा, कांग्रेस और जनता दल में भारी तोड़-फोड़ हुई और कई विधायक भाजपा में आ गए। कल्याण सिंह को इसका मास्टर माइंड माना गया। दल-बदलुओं पर विधानसभा अध्यक्ष का ही फैसला मान्य होता है। वो तो भाजपा के ही थे। तो कल्याण को कोई दिक्कत नहीं हुई। त्रिपाठी की बहुत आलोचना हुई। पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

21 अक्टूबर 1997 का दिन हिंदुस्तान के इतिहास का एक और काला दिन है। और कल्याण सिंह सरकार का दूसरा। उस दिन विधानसभा के भीतर विधायकों के बीच माइक फेंका-फेंकी, लात-घूंसे, जूता-चप्पल सब हुआ।

विपक्ष मौजूद नहीं रहा। कल्याण सिंह ने बहुमत साबित कर दिया। उन्हें 222 विधायकों का समर्थन मिला जो भाजपा की मूल संख्या 173 से 49 अधिक था। विधानसभा में हुई हिंसा के बाद राज्यपाल रोमेश भंडारी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश कर दी। 22 अक्टूबर को केंद्र ने इस सिफ़ारिश को राष्ट्रपति के। आर। नारायणन को भेज दिया। लेकिन राष्ट्रपति नारायणन ने केंद्रीय कैबिनेट की सिफ़ारिश को मानने से इंकार कर दिया और दोबारा विचार के लिए इसे केंद्र सरकार के पास भेज दिया। आख़िरकार केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश को दोबारा राष्ट्रपति के पास नहीं भेजने का फ़ैसला किया।

जब देश के इतिहास में पहली बार 93 मंत्रियों के मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई गई

अब सब कुछ कल्याण सिंह के हक में था। सबको ईनाम भी देना था। कल्याण सिंह ने पाला बदल कर आए दूसरी पार्टियों के हर विधायक को मंत्री बना दिया। देश के इतिहास में पहली बार 93 मंत्रियों के मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई गई। पर जिस मशीन को कल्याण सिंह ने चलाया था अब वो उनके काबू से बाहर हो गई। बाकी पार्टियों ने भी वैसा ही गठजोड़ करना शुरू कर दिया। हुआ ये था कि कांग्रेस से टूटकर 21 विधायकों ने लोकतांत्रिक कांग्रेस बना ली थी। ये लोग कल्याण के साथ थे।

दूसरी बार सत्ता में आने के बाद कल्याण सरकार ने ज़ोर दिया कि स्कूलों में सारी प्राथमिक कक्षाओं की शुरुआत भारतमाता पूजन से शुरू हो। 'यस सर' की जगह 'वंदे मातरम' बोला जाए। फरवरी 1998 में सरकार ने राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े लोगों से मुकदमे वापस ले लिए। घोषणा भी हुई कि अगर केंद्र में सरकार आई तो मंदिर वहीं बनाएंगे। 90 दिन में उत्तराखंड भी बनेगा।

21 फ़रवरी 1998 को यूपी में फिर एक काला दिन आया। कल्याण सिंह की राजनीति में तीसरी बार आया था ये। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्ख़ास्त कर जगदंबिका पाल को रात में 10।30 बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। लोकतांत्रिक कांग्रेस के जगदंबिका कल्याण की ही सरकार में ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर थे। पर दूसरी पार्टियों से खुफिया बात कर अपना काम कर लिया था।

इस फ़ैसले के विरोध में अटल बिहारी वाजपेयी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। रात को ही लोग हाई कोर्ट गए। कोर्ट ने अगले दिन राज्यपाल के आदेश पर रोक लगा दी और कल्याण सिंह सरकार को बहाल कर दिया। उस दिन राज्य सचिवालय में अजीब नज़ारा देखने को मिला। वहां दो-दो मुख्यमंत्री बैठे हुए थे। जगदंबिका पाल सबेरे सचिवालय पहुंच कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज़ हो गए। छोड़ ही नहीं रहे थे। जब उन्हें हाई कोर्ट का आदेश लिखित में मिला तब बड़े भारी मन से कल्याण सिंह के लिए कुर्सी छोड़कर चले गए। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 26 फ़रवरी को एक बार फिर शक्ति प्रदर्शन हुआ। इसमें कल्याण सिंह की जीत हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अप्रूव किया। दो मुख्यमंत्रियों का किस्सा खत्म हुआ।

कल्याण सिंह का कुसुम रॉय से रिश्ता

उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की एक दोस्त हुआ करती थीं। कुसुम राय। इनके पास सरकारी पावर बहुत थी। जबकि वो सरकार में कुछ खास नहीं थीं। आजमगढ़ की कुसुम राय 1997 में भाजपा के टिकट पर लखनऊ के राजाजीपुरम से सभासद का चुनाव जीतकर आई थीं। पर कहते हैं कि कल्याण सिंह के वरदहस्त के चलते बड़े-बड़े फैसले बदल देती थीं। इस बात से भी पार्टी के कई नेता नाराज थे। आपसी लड़ाई तो थी ही। कल्याण सिंह भी किसी की परवाह नहीं कर रहे थे।

सबके खिलाफ ओपन रिवोल्ट कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी से रिश्ते खराब कर लिए। मुख्यमंत्री पद से हटाकर उनको केंद्र में मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया गया तो आडवाणी से रिश्ते खराब हो गए। 1999 में उनको पार्टी से निकाल दिया गया। फिर कल्याण ने राष्ट्रीय क्रांति दल नाम से अपनी पार्टी बना ली। अपने पूरे प्रभाव का इस्तेमाल भाजपा के खिलाफ किया। ये वही एसिड था जो अपने हाथ पर गिर गया था।

कल्याण सिंह को लेकर एक एक कमाल की बात है कि कल्याण और नरेंद्र मोदी दोनों ही 2000 के आस-पास बहुत तेजी से ऊपर चढ़ रहे थे। दोनों ही अटल बिहारी वाजपेयी की नजरों में ऊंचे नहीं थे। आडवाणी खेमे के थे। दोनों ही हिंदू हृदय सम्राट के तमगे के लिए लालायित थे। दोनों ही पिछड़े वर्ग से थे। पर मोदी ने अपनी राजनीति बचा ली। कल्याण नहीं बचा पाए। जनवरी 2017 की अपनी लखनऊ रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल्याण सिंह को याद किया।

वहीं नवंबर 2016 में मेरठ रैली में अमित शाह ने प्रदेश की जनता से वादा किया कि कल्याण सिंह का सुशासन आएगा यूपी में। अभी कल्याण सिंह का 25 साल का पोता संदीप सिंह अतरौली से चुनाव लड़ रहा है। इनका बेटे राजवीर तो पहले से ही भाजपा सांसद हैं। बहरहाल यूपी के विधान सभा नजदीक हैं लेकिन इस बार यूपी की राजनीति अपने अगले सोपान में है, लेकिन देखना होगा कि इस बार योगी नेतृत्व में भाजपा सरकार अयोध्या मंदिर के निर्माण का अंतिम चरण देख पाएगी?

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