राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मनाही के बाद गांधी परिवार के वफादार सिपाही मल्लिकार्जुन खड़गे ने आज कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुनाव के लिए अपना नामांकन दाखिल कर दिया। ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अगले अध्यक्ष हो सकते हैं, क्योंकि वह 10 जनपथ समर्थित उम्मीदवार हैं।
अशोक गहलोत के लिए जयपुर में हुए बवाल के बाद गांधी परिवार की आनन-फानन में नजर पुराने वफादार खड़गे पर पड़ी। गहलोत के शक्ति प्रदर्शन ने 10 जनपथ को सकते में डाल दिया था। इसलिए हड़बड़ी में दिग्विजय सिंह को दिल्ली बुलाना पड़ा और पवन बंसल से नामांकन पत्र भी मंगवा लिया गया, लेकिन फिर ढाक के तीन पात वाली बात हुई और खड़गे को आगे करना पड़ा। यहां दो बातें साफ होती हैं- खड़गे कौन हैं और उनके अध्यक्ष बनने से कांग्रेस की राजनीति व उसकी छवि पर क्या असर पड़ेगा?
खड़गे उत्तर कर्नाटक स्थित बिदार से आते हैं और 9 बार विधायक व 2 बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। वह जाति से दलित हैं, लेकिन दलित राजनीति के लिए जाने नहीं जाते। 2014 से 2019 तक वो कांग्रेस के लोकसभा में नेता थे और अब राज्यसभा में नेता विपक्ष हैं।
1942 में जन्में 80 साल के खड़गे गांधी परिवार के करीब हैं, लेकिन वह ना तो कर्नाटक में शीर्ष नेतृत्व का हिस्सा रहे और ना ही यूपीए-2 के दौरान जब कांग्रेस सत्ता में थी। उनका कांग्रेस में राजनीतिक उदय 2014 के लोसभा चुनाव हारने के बाद हुआ। उसके बाद से खड़गे हर महत्वपूर्ण फैसलों में शामिल हैं। 10 जनपथ को लगता है कि खड़गे अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के साथ वफादारी के साथ काम करेंगे।
यही कारण है कि दिग्विजय सिंह, भूपेंद्र हुड्डा और अशोक गहलोत ने खड़गे को अपना समर्थन तुरंत दे दिया। खड़गे का उत्तर भारत में कोई पब्लिक कनेक्ट नहीं है, वह केवल रोजाना के काम के लिए अध्यक्ष बन रहे हैं। उनको टक्कर शशि थरूर से मिलेगी, जिनको संगठन में कोई समर्थन नहीं है।
एक बात यह भी है कि जो कांग्रेस का एलेक्ट्रोरल कॉलेज है, उस पर सांसद मनीष तिवारी सवाल उठा चुके हैं। उनका कहना है कि जब वोटर लिस्ट ही सिलेक्टेड है तो अध्यक्ष इलेक्टेड कैसे हो सकता है? इसलिए ये नो सरप्राइज इलेक्शन है। इसमें केवल सरप्राइज ये रहा कि जी-23 के समस्त नेता खड़गे के साथ खड़े दिखाई दिए, जिसमें खुद मनीष तिवारी, अम्बिका सोनी, दीपेंदर हुड्डा समेत कई लोग थे। इस युद्ध में झारखंड के नेता केएन त्रिपाठी कूदे, जिन्हें प्रदेश के बाहर कोई नहीं जानता है।
अब सवाल ये उठता है कि खड़गे के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस पर क्या फर्क पड़ेगा? कुछ नहीं पड़ेगा। खड़गे राष्ट्रीय नेता नहीं हैं, वह लोकप्रिय नेता नहीं हैं। उनके बनने से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। जी-23 भी नकारा साबित हुआ। सबने अपनी-अपनी साइड डील कर ली और जो कर नहीं पाए, उन्होंने पार्टी छोड़ दी। इसमें गुलाम नबी आज़ाद का नाम सबसे ऊपर है।
कांग्रेस में ये चुनाव नाम का है और खड़गे की जीत जी-23 को तिलांजली देने के बराबर होगी, लेकिन खड़गे के नामांकन से ये भी साफ़ हो गया है कि कांग्रेस आलाकमान की हालत पतली है और राज्य के बड़े नेता गांधी परिवार की बात केवल अपने राज्य के बाहर मानते हैं।
कमलनाथ ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। अशोक गहलोत ने शक्ति प्रदर्शन किया। भूपेश बघेल चुप्पी साधकर बैठे हैं। यानी बड़े नेता मानते हैं कि आने वाले दशक में कांग्रेस राज्यों में चुनाव ज़रूर जीत ले पर उसकी सरकार नहीं बनती। यानि साम्राज्य विकेन्द्रीकरण हो रहा है। ये तब होता है, जब केंद्र में नेतृत्व को वोट कैचर नहीं माना जाता।
मध्यकालीन भारत राज्यों के गवर्नर कमज़ोर सम्राट की बात नहीं मानते थे, लेकिन उनके नाम पर राज करते थे। मराठों ने भी आख़िरी मुग़ल बादशाह को बादशाह माना था, लेकिन उसकी सल्तनत पालम तक ही थी। यही कांग्रेस पार्टी में हो गया है। सब नारा गांधी परिवार का लगाते हैं, लेकिन अब उनकी बात कोई नहीं मानता।
आखिर में जिस उद्देश्य के लिए चुनाव आयोजित हो रहे थे, वो गहलोत के शक्ति प्रदर्शन के कारण असफल हो गया। चुनाव से ये साबित होता कि कांग्रेस में बड़े बदलाव हो सकते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का परिवारवाद का आरोप हट नहीं पायेगा। खड़गे को कोई भी स्वतंत्र उम्मीदवार नहीं मानता है। कांग्रेस में अब न चर्चा न ही चुनाव के ज़रिये ठीक से फैसले हो पा रहे हैं।
आशा की राजनीति की ताक़त अलग होती है। इस चुनाव से किसी बदलाव की आशा नहीं की जा सकती। बस देखना ये है कि वर्किंग समिति में चुनाव होंगे या नहीं। अगर उसमें चुनाव हुए तब भी थोड़ी आशा बचेगी नहीं तो ये मान लिया जाये कि ये कांग्रेस केवल गांधी परिवार की है और इसकी राजनीति केवल राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ही घूमेंगी। इसमें कोई दूसरा सुभाष अध्यक्ष नहीं बन सकता।