
गोधरा कांड: 27 फरवरी 2002 को गुजरात में स्थित गोधरा शहर में मुस्लिम समुदाय (लगभग 1500 लोगों) की भीड़ द्वारा एक कारसेवकों (हिन्दुओं) से भरी रेलगाड़ी को आग लगा दी गई जिसमें 59 यात्रियों (हिंदू) को जिन्दा जला कर मार दिया गया। ये साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन अयोध्या से अहमदाबाद जा रही थी।
इस घटना के बाद माहौल बिगड़ गया और साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए। गोधरा कांड के बाद हुए इन दंगों में हजारों लोग मारे गए।
गोधरा कांड के एक दिन बाद 28 फरवरी को अहमदाबाद की गुलबर्ग हाउसिंग सोसायटी में बेकाबू भीड़ ने 69 लोगों की हत्या कर दी थी। भीड़ सड़कों पर घूम रही थी, लोगों पर हमला कर रही थी, और घरों और दुकानों को जला रही थी।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इन दंगों में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे, जिनमें 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। इन दंगों से राज्य में हालात इस कदर बिगड़ गए कि स्थिति काबू में करने के लिए तीसरे दिन सेना उतारनी पड़ी।
27 फरवरी 2002: गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती ट्रेन के एस-6 कोच में मुस्लिमों द्वारा आग लगाए जाने के बाद 59 कारसेवकों हिंदुओं की मौत हो गई। इस मामले में 1500 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई।
28 फरवरी 2002: गुजरात के कई इलाकों में दंगा भड़का जिसमें 1200 से अधिक लोग मारे गए।
03 मार्च 2002: गोधरा ट्रेन जलाने के मामले में गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ आतंकवाद निरोधक अध्यादेश (पोटा) लगाया गया।
06 मार्च 2002: गुजरात सरकार ने कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट के तहत गोधरा कांड और उसके बाद हुई घटनाओं की जाँच के लिए एक आयोग की नियुक्ति की।
09 मार्च 2002: पुलिस ने सभी आरोपियों के खिलाफ भादसं की धारा 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र) लगाया।
25 मार्च 2002: केंद्र सरकार के दबाव की वजह से सभी आरोपियों पर से पोटा हटाया गया।
18 फरवरी 2003: गुजरात में भाजपा सरकार के दोबारा चुने जाने पर आरोपियों के खिलाफ फिर से आतंकवाद निरोधक कानून लगा दिया गया।
21 नवंबर 2003: उच्चतम न्यायालय ने गोधरा ट्रेन जलाए जाने के मामले समेत दंगे से जुड़े सभी मामलों की न्यायिक सुनवाई पर रोक लगाई।
04 सितंबर 2004: राजद नेता लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री रहने के दौरान केद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले के आधार पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश यूसी बनर्जी की अध्यक्षता वाली एक समिति का गठन किया गया। इस समिति को घटना के कुछ पहलुओं की जाँच का काम सौंपा गया।
21 सितंबर 2004: नवगठित संप्रग सरकार ने पोटा कानून को खत्म कर दिया और अरोपियों के विरुद्ध पोटा आरोपों की समीक्षा का फैसला किया।
17 जनवरी 2005: यूसी बनर्जी समिति ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में बताया कि एस-6 में लगी आग एक ‘दुर्घटना’ थी और इस बात की आशंका को खारिज किया कि आग बाहरी तत्वों द्वारा लगाई गई थी।
16 मई 2006: पोटा समीक्षा समिति ने अपनी राय दी कि आरोपियों पर पोटा के तहत आरोप नहीं लगाए जाएँ।
13 अक्टूबर 2006: गुजरात उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि यूसी बनर्जी समिति का गठन ‘अवैध’ और ‘असंवैधानिक’ है क्योंकि नानावटी-शाह आयोग पहले ही दंगे से जुड़े सभी मामले की जाँच कर रहा है। उसने यह भी कहा कि बनर्जी की जाँच के परिणाम ‘अमान्य’ हैं।
26 मार्च 2008: उच्चतम न्यायालय ने गोधरा ट्रेन में लगी आग और गोधरा के बाद हुए दंगों से जुड़े आठ मामलों की जाँच के लिए विशेष जाँच आयोग बनाया।
18 सितंबर 2008: नानावटी आयोग ने गोधरा कांड की जाँच सौंपी और कहा कि यह पूर्व नियोजित षड्यंत्र था और एस6 कोच को भीड़ ने पेट्रोल डालकर जलाया।
12 फरवरी 2009: उच्च न्यायालय ने पोटा समीक्षा समिति के इस फैसले की पुष्टि की कि कानून को इस मामले में नहीं लागू किया जा सकता है।
20 फरवरी: गोधरा कांड के पीड़ितों के रिश्तेदार ने आरोपियों पर से पोटा कानून हटाए जाने के उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इस मामले पर सुनवाई अभी भी लंबित है।
01 मई: उच्चतम न्यायालय ने गोधरा मामले की सुनवाई पर से प्रतिबंध हटाया और सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता वाले विशेष जाँच दल ने गोधरा कांड और दंगे से जुड़े आठ अन्य मामलों की जाँच में तेजी आई।
01 जून: गोधरा ट्रेन कांड की सुनवाई अहमदाबाद के साबरमती केंद्रीय जेल के अंदर शुरू हुई।
06 मई 2010: उच्चतम न्यायालय सुनवाई अदालत को गोधरा ट्रेन कांड समेत गुजरात के दंगों से जुड़े नौ संवेदनशील मामलों में फैसला सुनाने से रोका।
28 सितंबर: सुनवाई पूरी हुई लेकिन शीर्ष अदालत द्वारा रोक लगाए जाने के कारण फैसला नहीं सुनाया गया।
18 जनवरी 2011: उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाने पर से प्रतिबंध हटाया।
22 फरवरी: विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 31 लोगों को दोषी पाया, जबकि 63 अन्य को बरी किया।
1 मार्च 2011: विशेष न्यायालय ने गोधरा कांड में 11 को फांसी, 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई।