उत्तराखंड के गांव में शुरू किया कारोबार, आज 1 करोड़ हैं सालाना टर्नओवर, 100 लोगों को दिया रोजगार, जानें पूरी कहानी

बेंगलुरु की रहने वाली अमृता करीब 20 साल पहले अपने पति संतोष के साथ उत्तराखंड के एक गांव में बस गईं। यहां उन्होंने गांव के लोगों की समस्याओं को समझा, शोध किया और फिर अपना स्टार्टअप शुरू किया। आज वह ईको विलेज के मॉडल पर उत्तराखंड के स्थानीय उत्पादों को वैश्विक पहचान दे रही हैं।
Photo | Dainik Bhaskar
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डेस्क न्यूज़- शहरी जीवन की भागदौड़ को छोड़कर गांव में ही बसना। वहां की संस्कृति, जंगल, पहाड़ और खेत खलिहान का लुत्फ उठाते हुए इससे ज्यादा सुकून भरी जिंदगी और क्या हो सकती है। ऊपर से रोजगार और कमाई का जरिया मिल जाए तो क्या कहें, सोने पर सुहागा। बेंगलुरु की रहने वाली अमृता करीब 20 साल पहले अपने पति संतोष के साथ उत्तराखंड के एक गांव में बस गईं। यहां उन्होंने गांव के लोगों की समस्याओं को समझा, शोध किया और फिर अपना स्टार्टअप शुरू किया। आज वह ईको विलेज के मॉडल पर उत्तराखंड के स्थानीय उत्पादों को वैश्विक पहचान दे रही हैं। आज भारत के साथ-साथ विदेशों में भी अपने उत्पादों की आपूर्ति कर रही हैं। उनका सालाना टर्नओवर एक करोड़ रुपये से ज्यादा है।

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एक बार गाँव घुमने आए तो वही बस गए

51 वर्षीय अमृता के पति मूल रूप से जर्मनी के रहने वाले हैं। अब उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली है। दोनों की मुलाकात पुणे में ओशो के आश्रम में हुई थी। फिर दोनों ने शादी कर ली। संतोष पेशे से साइकोलॉजिस्ट हैं। अमृता बताती हैं कि साल 2002 में मैं संतोष के साथ लखनऊ में रहती थी। एक बार हम उत्तराखंड घूमने गए थे। वहां हमें एक अजीब चीज देखने को मिली।

वहां बाहर से आने वाले लोग एक स्थानीय की जमीन पर मकान बनाकर छोड़ देते थे। वे छुट्टियों में यहां आते थे और फिर मकान की रखवाली की जिम्मेदारी जमीन धारक को देकर लौट जाते थे। फिर अलग-अलग जगहों पर जाकर लोगों से मिलने और उनके रहन-सहन की स्थिति को देखकर पता चला कि यहां कई प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन इसके बाद भी ज्यादातर स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। कई लोग पलायन भी कर चुके हैं। लोग अपनी विरासत को नहीं बचा पा रहे हैं।

अमृता कहती हैं कि फिर मैंने संतोष से बात की और फैसला किया कि हम यहां एक गांव में रहकर कुछ ऐसा काम शुरू करें, जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिले और हम भी कमा सकें। इसके बाद दोनों यहीं रुक गए। वापस लखनऊ नहीं लौटे।

6 साल तक किया शोध

अमृता और संतोष ने करीब 6 साल रिसर्च में बिताए। अलग-अलग गांवों में गए। वहां के लोगों से मिले। उनकी आर्थिक परेशानी को समझा। वहां विशेष उत्पादों के बारे में जानकारी जुटाई। अमृता कहती हैं कि इस दौरान हमें काफी कुछ सीखने और समझने को मिला। उत्तराखंड और पहाड़ी क्षेत्र में कई ऐसी चीजें मिलीं जिनका मूल्यवर्धन किया जा सकता था। कई उत्पादों की विदेशों में भी अच्छी मांग है, लेकिन यहां के स्थानीय लोग इसका व्यावसायिक स्तर पर उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें बेहतर मार्केटिंग प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता है।

2008 में शुरु किया कारोबार

साल 2008 में दोनों ने मिलकर अल्मोड़ा के एक गांव में एसओएस ऑर्गेनिक्स (SOS Organics) के नाम से अपना कारोबार शुरू किया। किराए पर एक घर लिया और अपनी बचत से एक छोटी प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित की। यहां उन्होंने साबुन, शहद, चाय, बाजरा, मोमबत्ती, तेल समेत दर्जनों उत्पाद बनाने शुरू किए। स्वास्थ्य से लेकर कॉस्मेटिक तक के उत्पाद बनाकर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, जयपुर जैसे शहरों में भेजने लगे। धीरे-धीरे उनका कारोबार बढ़ता गया। एक के बाद एक कई स्थानीय किसान भी उनके साथ हो गए।

इस तरह तैयार करते हैं उत्पाद

अमृता कहती हैं कि हम किसी उत्पाद के निर्माता नहीं हैं। यह सब स्थानीय किसान करते हैं। हमारा काम वैल्यू एडिशन का है। जैसे यहाँ बिच्छू घास बहुत है। इसका उपयोग रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता है। वही इससे चाय भी बनती है। इसी तरह यहां के मिलेट्स की भी काफी मांग है। पहाड़ी नमक काफी प्रसिद्ध है। हम स्थानीय किसानों से उनके उत्पाद खरीदते हैं। इसके बाद इन्हें धूप में सुखाते हैं। फिर मशीन की मदद से अलग-अलग उत्पाद बनाए जाते हैं। इसके बाद उनकी पैकेजिंग और मूल्यवर्धन होता है। खास बात यह है कि हम इसमें किसी भी तरह के केमिकल या प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल नहीं करते हैं। हम सब कुछ प्राकृतिक तरीके से करते हैं। रंग भरने के लिए भी हम डाई की जगह पौधे के रंग का प्रयोग करते हैं।

50 से ज्यादा वैरायटी के उत्पाद बना रहे, 100 से ज्याता लोगों को काम से जोड़ा

अमृता कहती हैं कि हम जल संरक्षण के लिए भी काम कर रहे हैं। हम केवल बारिश के पानी का उपयोग करते हैं और स्थानीय किसानों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। हमने 2 लाख लीटर से अधिक पानी का संचयन किया है। इतना ही नहीं हम बिजली के लिए सोलर सिस्टम का भी इस्तेमाल करते हैं। फिलहाल अमृता की टीम 50 से ज्यादा तरह के उत्पाद बना रही है। उन्होंने 100 से अधिक स्थानीय लोगों को रोजगार से जोड़ा है, जबकि 30 लोग उनके अपने कर्मचारी हैं।

कैसे करते हैं मार्केटिंग?

फिलहाल अमृता ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों प्लेटफॉर्म के जरिए मार्केटिंग कर रही हैं। देश के कई शहरों में इनके रिटेलर्स हैं। होलसेल में भी वह दिल्ली, मुंबई समेत कई शहरों में मार्केटिंग करती हैं। वह सोशल मीडिया और अपनी ई-कॉमर्स वेबसाइट के जरिए देशभर में मार्केटिंग भी करती हैं। भारत के बाहर भी उनके उत्पाद जापान और अन्य देशों में जाते हैं। इसके साथ ही उनके उत्पाद Amazon और Flipkart पर भी उपलब्ध हैं। उनके हिमालयन शहद के 250 ग्राम पैक की कीमत 220 रुपये है। आंवला शैम्पू बार की कीमत 190 रुपये, हिमालयन मिलेट 110 रुपये और लक्ज़री साबुन 190 रुपये है।

आप मार्केटिंग कैसे करते हैं?

फिलहाल अमृता ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों प्लेटफॉर्म के जरिए मार्केटिंग कर रही हैं। देश के कई शहरों में इनके रिटेलर्स हैं। होलसेल में भी वह दिल्ली, मुंबई समेत कई शहरों में मार्केटिंग करती हैं। वह सोशल मीडिया और अपनी ई-कॉमर्स वेबसाइट के जरिए देशभर में मार्केटिंग भी करती हैं। भारत के बाहर भी उनके उत्पाद जापान और अन्य देशों में जाते हैं। इसके साथ ही उनके उत्पाद Amazon और Flipkart पर भी उपलब्ध हैं। उनके हिमालयन शहद के 250 ग्राम पैक की कीमत 220 रुपये है। आंवला शैम्पू बार की कीमत 190 रुपये, हिमालयन मिलेट 110 रुपये और लक्ज़री साबुन 190 रुपये है।

बिच्छू घास से चाय कैसे बनाएं?

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बिच्छू घास आसानी से मिल जाती है। इसकी पत्तियों को तोड़कर धूप में दो से तीन दिन तक सुखाया जाता है। इसके बाद लेमन ग्रास, तुलसी पत्ता, तेजपत्ता और अदरक डालकर एक मिश्रण तैयार किया जाता है। अब इसे पानी में जरूरत के मुताबिक शक्कर डालकर उबाल लें। आपकी चाय तैयार है। लोकल लोग इस पहाड़ी घास को बिच्छू घास या कंडाली बोलते हैं। सर्दी-खांसी के साथ-साथ इसका उपयोग सब्जी बनाने में भी किया जाता है। इसमें विटामिन सी और विटामिन ए भरपूर मात्रा में मिलता है। ये इम्युनिटी बूस्टर होती है। साथ ही डायबिटीज और गठिया रोग में भी फायदेमंद है।

क्या है इको विलेज मॉडल?

जिन गांवों में जैविक खेती की जानी चाहिए। प्रोडक्ट की प्रोसेसिंग और ब्रांडिंग की जाए। जहां खाने से लेकर रहन-सहन तक सब कुछ स्थानीय और पूरी तरह से प्राकृतिक है। जहां किसान काम की तलाश में कहीं बाहर जाने के बजाय अपने गांव में रोजगार प्राप्त कर सकें। हेल्थ से लेकर वेल्थ तक इंफ्रास्ट्रक्चर होना चाहिए। यानी हर तरह से आत्मनिर्भर गांव को इको विलेज कहा जाता है।

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