सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की तरफ से नियमित रूप से हो रही गिरफ्तारी को लेकर चिंता व्यक्त की है। शीर्ष अदालत ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संवैधानिक जनादेश का एक महत्त्वपूर्ण पहलू मानते हुए कहा है कि जब आरोपी जांच में सहयोग कर रहा हो और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वह फरार हो जाएगा या उसे प्रभावित करेगा, तो गिरफ्तारी को रूटीन तरीका नहीं बनाना चाहिए।
जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की बेंच ने कहा कि ने कहा कि गिरफ्तारी से किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को अपूरणीय क्षति होती है। पुलिस को इसका सहारा सिर्फ इसलिए नहीं लेना चाहिए क्योंकि कानून के तहत गिरफ्तारी की अनुमति है।
बेंच ने अफसोस जताया कि 1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यापक दिशा-निर्देशों के बावजूद, नियमित गिरफ्तारियां की जा रही हैं और निचली अदालतें भी इस तरह के तरीके पर जोर देती हैं। बेंच ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 170 में उल्लेख किया गया हिरासत शब्द को पुलिस या न्यायिक हिरासत नहीं माना जा सकता है।
यह केवल चार्जशीट दाखिल करते समय जांच अधिकारी की तरफ से अदालत के समक्ष आरोपी की प्रस्तुति को दर्शाता है। कोर्ट ने यह आदेश एक व्यक्ति की उस याचिका पर दिया, जिसमें उसने अपने खिलाफ अरेस्ट मेमो जारी होने के बाद अग्रिम जमानत की मांग की थी। उत्तर प्रदेश की एक निचली अदालत ने कहा था कि जब तक आरोपी व्यक्ति को हिरासत में नहीं लिया जाता, सीआरपीसी की धारा 170 के मद्देनजर आरोपपत्र को रिकार्ड में नहीं लिया जाएगा।
बेंच ने कहा कि जांच के दौरान किसी आरोपी को गिरफ्तार करने का मौका तब बनता है, जब हिरासत में जांच आवश्यक हो जाती है या यह एक जघन्य अपराध होता है। इसके अलावा जहां गवाहों या आरोपी को प्रभावित करने की संभावना होती है, उस परिस्थिति में गिरफ्तारी की जानी चाहिए। बेंच ने कहा कि गिरफ्तार करने की पावर के अस्तित्व और इसके प्रयोग के औचित्य के बीच अंतर किया जाना चाहिए।