न्यूज – दिल्ली चुनाव के बाद राजनीतिक माहौल थोडा शांत-सा है लेकिन इन्ही चुनावों के बीच सुप्रीम कोर्ट की आरक्षण को लेकर एक टिप्पणी आयी थी, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और इसे लागू करना या न करना सिर्फ राज्य सरकारों पर निर्भर करता है। हो सकता दिल्ली इलेक्शन की वजह से ये मुद्दा हाईलाइट ना हुआ हो और मीडिया में नही आया हो, लेकिन इस मुद्दे पर मोदी सरकार घिरती हुई नजर आ रही है।
कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद केन्द्र की मोदी सरकार पर पुनर्विचार याचिका का दबाव बढ़ गया है। कांग्रेस के साथ ही सरकार के कई विपक्षी दलों ने भी भाजपा पर दबाव बढ़ा दिया है। आरक्षण का समर्थन करने वालों की मांग है कि संविधान की नौंवी अनुसूची में आरक्षण को शामिल कर इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाए। 2018 में भी आरक्षण के मुद्दे को लेकर देश में व्यापक तौर पर बंद व हिंसा हुई थी। इस मुद्दे को लेकर देशभर के सरकारी कर्मचारी दो पक्षों में बंटे हुए हैं।
8 साल पहले दिसंबर 2012 में प्रमोशन में आरक्षण बिल पर राज्यसभा में वोटिंग होनी थी। तब उत्तर प्रदेश में इस बिल के विरोध में लगभग 18 लाख सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर आ गये थे। देश की अधिकांश राज्य सरकारें और केंद्र की सरकार प्रमोशन में आरक्षण के पक्ष में दिखती रही हैं। आरक्षण का यह विवाद इसलिए भी अहम है, क्योंकि यह बिहार चुनाव से ठीक पूर्व पहले हुआ है।
ये मुद्दा 65 साल पुराना है, 1955 में जवाहर लाल नेहरू सरकार ने संविधान में 77वां संशोधन कर अनुच्छेद 16 में नई धारा 4/ए को जोड़ा गया था। इसी के तहत एससी-एसटी समुदाय को सरकारी नौकरी में वरीयता देते हुए प्रमोशन दिया जा सकता था। साल 1992 में इस व्यवस्था पर तब ब्रेक लगा जब इंदिरा साहनी केस के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, "आरक्षण की व्यवस्था नियुक्ति के लिए है न कि प्रमोशन के लिए' और साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा की आरक्षण कुल भर्ती का 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता। 1995 में केंद्र सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण के लिए 82वां संविधान संशोधन किया। इससे राज्य को ऐसा करने का अधिकार हासिल हो गया। 2002 में एनडीए की सरकार ने 85वां संशोधन कर आरक्षण के लिए कोटे के साथ वरिष्ठता भी लागू कर दी। 2005 में उत्तरप्रदेश की मुलायम सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण को रद्द कर दिया। दो साल बाद मायावती सरकार ने वरिष्ठता की शर्त के साथ पदोन्नति में आरक्षण को फिर से लागू कर दिया। हाई कोर्ट में चुनौती मिलने के बाद 2011 में इस फैसले को रद्द कर दिया गया। हालांकि, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि प्रमोशन में आरक्षण पर कोई रोक नहीं है और राज्य इसे अपने आधार पर लागू कर सकते हैं।
अब आपको बताते है कि आखिर ये विवाद है क्या…
7 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य सरकार को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उत्तराखंड सरकार ने दलील दी थी कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 16(4-A) में इस आशय के कोई प्रस्ताव नहीं हैं और आरक्षण किसी का मौलिक अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तरांखड सरकार की इस दलील को मानते हुए कहा कि संविधान के ये दोनों अनुच्छेद सरकार को यह अधिकार देते हैं कि अगर उसे लगे कि एससी-एसटी समुदाय का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह नौकरियों एवं प्रमोशन में आरक्षण देने का कानून बना सकती हैं।
उत्तराखंड की सरकार ने 5 सितंबर, 2012 को लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) में असिस्टेंट इंजीनियर (सिविल) के पद पर प्रमोशन के लिए नोटिफिकेशन निकाला। इस नोटिफिकेशन में कहीं भी प्रमोशन में आरक्षण का जिक्र नहीं था। इस नोटिफिकेशन के खिलाफ उत्तराखंड हाईकोर्ट में कई याचिकाएं लगीं जिनमें मांग की गई कि एससी-एसटी को प्रमोशन में भी आरक्षण दिया जाए। इस संबंध में उत्तराखंड सरकार ने नोटिफिकेशन जारी करते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विसेज (रिजर्वेशन फॉर शेड्यूल्ड कास्ट्स, शेड्यूल्ड ट्राइब्स ऐंड अदर बैकवर्ड क्लासेज) ऐक्ट, 1994 के सेक्शन 3(7)का लाभ भविष्य में राज्य सरकार द्वारा प्रमोशन दिए जाने के फैसलों के वक्त नहीं दिया जा सकता है।
क्या है अनुच्छेद 16(4) और 16(4-A)
भारत के संविधान का अनुच्छेद 16 अवसरों की समानता की बात करता है। यानी सरकार के पास कोई नौकरी है, तो उस पर सभी का बराबर हक है। जिसके पास योग्यता है, उसे नौकरी दे दी जाएगी। लेकिन संविधान का अनुच्छेद 16(4) इस नियम में छूट देता है कि अगर सरकार को लगे कि किसी वर्ग के लोगों के पास सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वो उन्हें आरक्षण का लाभ दे सकती है। अनुच्छेद 16(4-A) राज्य को इस बात की छूट देता है कि वो प्रतिनिधित्व की कमी को दूर करने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण दे।