
Maharashtra Politics: आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा के साथ मुंबई में 24 फरवरी को उद्धव ठाकरे से मुलाकात की। उनकी यह मुलाकात 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास बताया जा रहा है। हालांकि इसके पीछे आम आदमी पार्टी की छिपी रणनीति भी हो सकती है।
एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद से उद्धव ठाकरे की राजनीति इस समय हासिये पर सिमट चुकी है, ऐसे में एक तरफ महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को नए साथी की तलाश है, वहीं अरविंद केजरीवाल वहां नई जमीन की तलाश में हैं। उद्धव ठाकरे से अरविंद केजरीवाल की मुलाकात को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है।
इसके पीछे एक बड़ा कारण महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे से उनके पुराने साथी दलों (कांग्रेस और एनसीपी ) की दूरी भी माना जा रहा है। शिवसेना में दरार के बाद उद्धव ठाकरे से शिवसेना का चुनाव चिह्न तीर कमान और फिर पार्टी कार्यालय छिन चुका है। भाजपा और एकनाथ शिंदे उन पर वार पर वार कर रहे हैं, लेकिन उनके सहयोगी दल कांग्रेस और एनसीपी कुछ बोलने की बजाय खामौशी ओढ़े हुए हैं। ऐसे में उद्धव ठाकरे को अब नए साथी की तलाश है जो उन्हें अरविंद केजरीवाल के रूप में मिलने जा रहा है।
उद्धव ठाकरे राजनीति के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब उद्धव ठाकरे ने बीजेपी से नाता तोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से सरकार बनाई, तो यह सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति के लिए चौंकाने वाला फैसला रहा था। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने, लेकिन उन्होंने शायद ये सोचा भी नहीं होगा कि यह फैसला आगे चलकर उनके लिए कितनी मुश्किल लाने वाला है।
उद्धव के फैसले से बीजेपी तो तिलमिलाई ही थी, पार्टी के अंदर भी एक धड़े में असंतोष पनपा। जो बढ़ता ही रहा और 2022 में बगावत के रूप में फूट पड़ा। इस बगावत का नेतृत्व किया एकनाथ शिंदे ने। इस बगावत ने पहले उद्धव ठाकरे के हाथ से सत्ता छीनी और फिर एक के बाद एक झटके के बाद अब वे पार्टी का नाम और निशान भी गंवा चुके हैं।
वो पार्टी जिसे उनके पिता बालासाहेब ने खड़ा किया और जिसे उनके परिवार की राजनीतिक विरासत माना जाता था। शिवसेना को कभी ठाकरे परिवार से अलग सोचा भी नहीं जाता था, आज उसी शिवसेना की लड़ाई फिलहाल तो हारते दिख रहे हैं। चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे के गुट को ही असली शिवसेना मानते हुए पार्टी का चुनाव निशान भी उसे सौंप दिया। उद्धव ठाकरे सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन 22 फरवरी को सर्वोच्च अदालत ने भी चुनाव आयोग के फैसले को बने रहने दिया।
उद्धव ठाकरे को अब नए सिरे से पूरा ढांचा खड़ा करना होगा। उद्धव अब पहले जैसी स्थिति में नहीं हैं। इस बात को एनसीपी और कांग्रेस जैसे सहयोगी समझ रहे हैं और इस कमजोरी का फायदा उठाना चाहेंगे। यह भी हो सकता है कि एनसीपी और कांग्रेस धीरे-धीरे उद्धव ठाकरे से किनारा ही न कर लें। एनसीपी की तरफ से तो पहले ही अगले मुख्यमंत्री के लिए नाम उछाला जाने लगा है। कांग्रेस से भी समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है।
उद्धव ठाकरे के सामने बीएमसी के चुनाव सबसे बड़ी चुनौती है। बीएमसी में 25 सालों से शिवसेना का राज रहा है, लेकिन वो शिवसेना ठाकरे परिवार की हुआ करती थी। अब शिवसेना एकनाथ शिंदे की हो चुकी है। अगले कुछ महीने में होने वाला बीएमसी का मुकाबला राज्य में कई नए राजनीतिक समीकरणों की राह तय करेगा।
शिंदे को जहां ये साबित करना होगा कि क्या वे वाकई बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस हैं, बीजेपी के लिए यह बताएगा कि क्या उन्होंने सही दांव लगाया है। उद्धव ठाकरे के लिए तो यह एक तरह से सियासी वजूद की लड़ाई है।
बीएमसी के चुनाव उद्धव के भविष्य की राह बहुत कुछ तय करेंगे। यही वजह है कि उन्होंने एक नए राजनीतिक समीकरण का ऐलान किया है। बीएमसी में उन्होंने प्रकाश अंबेडकर वंचित बहुजन अघाडी के साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया है। हिंदुत्व और मराठा विचारधारा वाले उद्धव ठाकरे और दलित और मुस्लिम के बीच पैठ वाले प्रकाश अंबेडकर के बीच सियासी गठजोड़ राज्य के लिए नया सियासी प्रयोग है। इस प्रयोग के नतीजों पर उद्धव ठाकरे का बहुत कुछ दांव पर है।