पद्मश्री छुटनी देवी की कहानी: डायन बताकर जिनपर हुए बेहिसाब जुल्म,उनकी एक मुहिम से आया बदलाव और 500 महिलाओं को मिली नई जिंदगी

झारखंड के सरायकेला-खरसांवा जिले के बीरबांस गांव की रहनेवाली यही छुटनी देवी मंगलवार को देश के राष्ट्रपति के हाथों पद्मश्री से सम्मानित हुईं।
पद्मश्री छुटनी देवी की कहानी: डायन बताकर जिनपर हुए बेहिसाब जुल्म,उनकी एक मुहिम से आया बदलाव और 500 महिलाओं को मिली नई जिंदगी
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आज हम आपको पद्मश्री छुटनी देवी की जिंदगी की कुछ उन यादो के बारे में आपसे साजा करने जा रहे है जिनकी निजी जिंदगी में जो घटनाये हुई उनके कुछ यादे जिससे आपको जानना अति आवश्यक है छुटनी देवी को तीन सितंबर 1995 की तारीख अच्छी तरह याद है। इस दिन गांव में बैठी पंचायत ने उनपर जो जुल्म किये थे, उसकी टीस आज भी जब उनके सीने में उठती है तो जख्म एक बार फिर हरे हो जाते हैं। उनकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं। पड़ोसी की बेटी बीमार पड़ी थी

डायन प्रताड़ना के खिलाफ छुटनी देवी की अगुवाई में चली मुहिम का ही असर है

और इसका जुर्म उनके माथे पर मढ़ा गया था, यह कहते हुए कि तुम डायन हो। जादू-टोना करके बच्ची की जान लेना चाहती हो। पंचायत ने उनपर पांच सौ रुपये का जुमार्ना ठोंका। दबंगों के खौफ से छुटनी देवी ने जुमार्ना भर दिया। लेकिन बीमार बच्ची अगले रोज भी ठीक नहीं हुई तो चार सितंबर को एक साथ चालीस-पचास लोगों ने उनके घर पर धावा बोला। उन्हें खींचकर बाहर निकाला। उनके तन से कपड़े खींच लिये गये। बेरहमी से पीटा गया। इतना ही नहीं, उनपर मल-मूत्र तक फेंका गया। पर, ये छुटनी देवी का अतीत है। आज जिस छुटनी देवी से आप मिलेंगे, उनकी पहचानएक ऐसी 'वीरांगना के रूप में है, जिन्होंने पूरे झारखंड में डायन-भूतनी कहकर प्रताड़ित की गयी महिलाओं को नरक जैसी जिंदगी से बाहर निकाला है। झारखंड के सरायकेला-खरसांवा जिले के बीरबांस गांव की रहनेवाली यही छुटनी देवी मंगलवार को देश के राष्ट्रपति के हाथों पद्मश्री से सम्मानित हुईं।

आठ-दस महीने तक मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और बच्चों का पेट भरती रही।"

डायन प्रताड़ना के खिलाफ छुटनी देवी की अगुवाई में चली मुहिम का ही असर है कि झारखंड के चाईबासा, सरायकेला-खरसांवा, खूंटी, चक्रधरपुर के साथ साथ छत्तीसगढ़, बिहार, बंगाल और ओडिशा के सीमावर्ती इलाकों में लोगों छुटनी देवी अब एक बड़ा नाम है। लोग उनका जिक्र बड़े आदर-एहतराम के साथ करते हैं। छुटनी देवी बताती हैं कि 1995 में घटी घटना के बाद आज इस जगह तक पहुंचने के लिए उन्होंने बेहिसाब दुश्वारियां झेली हैं। जब भी वह पुराने दिनों को याद करती हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह बताती हैं, "4 सितंबर की घटना के बाद मेरा ससुराल में रहना मुश्किल हो गया। यहां तक कि पति ने भी साथ छोड़ दिया। मेरे तीन बच्चे हैं।

उन्होंने यहां रहकर समझा कि कानून की मदद से कैसे अंधविश्वासों से लड़ा जा सकता है।

तीनों को साथ लेकर आधी रात को गांव से निकल गयी। एक रिश्तेदार के यहां रुकी, पर यहां भी उन्हें डायन करार देनेवाले लोगों से खतरा था। वह उफनती हुई खरकई नदी पार कर किसी इसके बाद किसी तरह आदित्यपुर में अपने भाई के घर पहुंचीं, लेकिन बदकिस्मती ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा। कुछ रोज बाद मां की मौत हो गयी और तो मुझ ेयह घर भी छोड़ना पड़ा। फिर, गांव के ही बाहर एक पेड़ के नीचे झोपड़ी बनाकर सिर छिपाने का इंतजाम किया। आठ-दस महीने तक मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह अपना और बच्चों का पेट भरती रही।"

इसके आगे की जो कहानी है, वह छुटनी देवी के इलाके की एक बड़ी शख्सियत बनने की एक शानदार दास्तां है। छुटनी देवी की मुलाकात वर्ष 1996-97 में फ्रीलीगलएड कमेटी (फ्लैक) के कुछ सदस्यों से हुई। फिर, उनकी कहानी मीडिया में आयी। नेशनल जियोग्राफिक चैनल तक बात पहुंची तो उनके जीवन और संघर्ष पर एकडाक्यूमेंट्री बनी। फिर 2000 में गैर सरकारी संगठन एसोसिएशन फॉरसोशल एंड ह्यूमनअवेयरनेस (आशा) ने उन्हें समाज परिवर्तन और अंधविश्वास के खिलाफ अभियान से जोड़ा। उन्होंने यहां रहकर समझा कि कानून की मदद से कैसे अंधविश्वासों से लड़ा जा सकता है।

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