Madhuri Sonkar
साल 1977. 21 महीने लंबी चली इमरजेंसी खत्म हुई थी। देश की राजनीति पर से अनिश्चित्ता के बादल छंटे। विपक्षी दल के नेता जो उस वक्त जेल गए, वो लोग साथ आए। ‘जनता दल’ के नाम से पार्टी बनाई। चुनाव जीता और इंदिरा गांधी की सरकार को बाहर का रास्ता दिखाया।
ये इतिहास का हिस्सा है। अब आगे जो आप पढ़ेंगे वो एक फिल्म का सीन है। जीत के बाद जनता दल के लोग हर्षोल्लास के साथ संसद परिसर के अंदर चले जाते हैं। उन सभी में से आगे अटल बिहारी वाजपेयी हैं। वो दीवारों को देखते हुए चल रहे हैं। एकाएक उनकी नज़र एक जगह रुकती है।
दीवार पर मिट्टी के निशान से एक फ्रेम गढ़ा हुआ है। वहां कभी एक तस्वीर हुआ करती थी। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की। अटल वहां किसी से पूछते हैं कि वो फोटो क्यों निकलवा दी। जवाब आता है कि वो तो आपके विपक्ष में थे ना। अटल बने पंकज त्रिपाठी कहते हैं, ‘मैं अटल हूं’ के इस एक सीन से अटल बिहारी वाजपेयी की शख्सियत की पोरी तस्वीर निखार कर सामने आती है। वो कैसे नेता थे और उससे भी ज़रूरी, वो कैसे इंसान थे।
बस मलाल ये है कि फिल्म बाकी हिस्सों में इतनी ईमानदारी नहीं बरत पाती। रवि जाधव के निर्देशन में बनी ‘मैं अटल हूं’ की कहानी की शुरुआत और समापन कारगिल युद्ध पर होती है। उस बीच हम उनका बचपन देखते हैं. RSS में बिताए दिनों से परिचित होते हैं। उन्हें बड़ा होते हुए देखते हैं। उन्मुक्त हुए भारत को मीठी हवा में सांस लेते हुए देखते हैं।
फिल्म के प्रमोशन मटेरियल से लगा था कि मेकर्स अटल के व्यक्तित्व पर फोकस रखेंगे.।उन घटनाओं पर ज़ोर देंगे जिन्होंने ग्वालियर के ‘अटला’ को देश का अटल बनाया। लेकिन मेकर्स ऐसा नहीं कर पाए। फिल्म में दो चीज़ें बीच-बीच में आती रहती हैं– अटल की कविताएं और नैरेशन। बस हमें ये नहीं पता चलता कि इस कहानी का सूत्रधार कौन है।
फिल्म सब कुछ लपेटने की कोशिश करती है। उस वजह से किसी भी हिस्से को ठहराव के साथ नहीं दिखा पाती। खट-खट कर के घटनाएं आती हैं और चली जाती हैं। उनका अटल पर क्या असर पड़ा। उस घटना ने उन्हें कैसे बदला। उस घटना में शामिल व्यक्ति विशेष से उनका इतना अटैचमेंट क्यों था। फिल्म की लिखाई इन बातों का संतोषजनक जवाब नहीं देती।