डेस्क न्यूज. राजनीति में विचारों के बीच टकराव की बात आम होती है, लेकिन जब इन विचारधाराओं के मतभेद के कारण आपस में द्वेष की भावना पैदा हो जाए तो यह गलत है, वर्तमान राजनीति में कुछ इस तरह के कई उदाहरण सामने हैं जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं के कारण कई बार टकराव की स्थिति भी हो जाती है, इस दौरान नेता भाषा की मर्यादा भी भूल जाते हैं, और अपशब्द कहने से भी नहीं चूकते हैं, फिर चाहे उनके द्वारा कही गई बात गलत ही क्यों ना हो ।
लेकिन राजनीति में कई ऐसे उदाहरण भी है, जिनमें राजनीतिक विचारधाराओं के मतभेद के कारण कभी मनमुटाव नहीं हुआ हैं, ऐसी ही एक कहानी जुड़ी है बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी से, यह दोनों ऐसे नेता थे जिनकी "स्वराज और लक्ष्य के अलावा शायद ही किसी और बात पर सहमति हो ।
1915 को महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आ्ए, उस समय उनके स्वागत में कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा था, नेशनल यूनियन ने भी शहर के हीराबाग में महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी के स्वागत में एक कार्यक्रम का आयोजन रखा था, कार्यक्रम में उस दौर के धुरंधर राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक भी उपस्थित थे ।
गांधी ने इस कार्यक्रम में दोहराया था कि भारत में उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले को ही अपना राजनीतिक गुरु चुना है, हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि वे तो पूना जाकर तिलक की सेवा में उपस्थित होकर उनका सम्मान करना चाहते थे, और बम्बई में तिलक से मिलकर उन्हें बहुत खुशी हुई है,गोखले कांग्रेस की नरम या उदारवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते थे,
इस मुलाकात को समाचार पत्रों ने कुछ इस प्रकार छापा कि संभवतः कांग्रेस के नरम और गरम धड़े के बीच मेल कराने के प्रयास के रूप में गांधी की इस मुलाकात को देखा गया, इस मुलाकात के बाद तरह-तरह के कयास लगे, जब तिलक को लगा कि उन पर दबाव ज्यादा बन रहा है तो उन्होंने महात्मा गांधी से इस मामले पर एक पूरा विवरण प्रकाशित करने की अनुमति मांगी, लेकिन गांधी इसके पक्ष में नहीं थे, गांधी ने तिलक को एक पत्र लिखते हुए कहा कि "हमारी बातचीत व्यक्तिगत थी और यह व्यक्तिगत ही रहनी चाहिए, मैं तो केवल आपके पास एक प्रशंसक के रूप में आया था, मैं किसी अखबारी विवाद में नहीं पड़ना चाहता, आशा करता हूं कि आप हमारी भेंट का विवरण प्रकाशित नहीं करेंगे,
तिलक और गांधी के बीच कई प्रश्नों पर स्पष्ट मतभेद रहे. जैसे प्रथम विश्वयुद्ध में भारत के शामिल होने पर दोनों में ऊपरी सहमति तो थी लेकिन तिलक इसके लिए ब्रिटिश हुकूमत के सामने स्वराज्य की शर्त रखना चाहते थे. सत्याग्रह के महत्व को स्वीकारते हुए भी इसपर दोनों का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग था. '
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