जम्मू कश्मीर में धारा 350 और 35A हटाए जाने के दो साल बाद अब कश्मीर घाटी की हवा काफी बदल चुकी है। वर्षों से आंतकी वारदातों से त्रस्त वहां के लोगों ने सुकून की सांस ली है। वहां के हालात काफी बदल चुके हैं। ऐसे में केंद्र की भाजपा सरकार का यह कदम घाटी के कट्टरवादी नेताओं और आतंकी संगठनों को रास नहीं आ रहा। जम्मू कश्मीर में धारा 350 और 35A हटाए जाने का विरोध वहां के कट्टरवादी नेता ही नहीं अपितु वह दल (कांग्रेस) भी कर रहा है, जिसने ये धाराएं लगाकर J&K को शेष भारत से अलग करने का काम किया। अब धारा 350 और 35A हटाए जाने के बाद J&K में नए सिरे से किए गए परिसीमन और इसके बाद घाटी में रह रहे अन्य राज्यों के अस्थायी नागरिकों एवं एनआरआई को मिले मदतान के अधिकार से स्थानीय दल पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस आदि तिलमिला गए हैं। इन दलों के कट्टरवादी नेता मामले पर ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे वहां का माहौल बिगड़े और जनता भ्रमित हो।
हालांकि आम कश्मीरियों की बात की जाए उनके विचार इन कट्टरवादी नेताओं से जुदा हैं। घाटी के कुछ कश्मीरियों ने इस मामले पर अपनी राय जाहिर करते हुए केंद्र सरकार और चुनाव आयोग के इस कदम का स्वागत किया है। साथ ही कहा है कि जब पूरे देश में बाहरी राज्यों के अस्थायी निवासियों एवं एनआरआई को स्थानीय चुनाव में मतदान करने का अधिकार है तो J&K में इसका विरोध क्यों? घाटी के कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि जब मुफ्ती मोहम्मद सईद और गुलाम नबी आजाद कश्मीरी होते हुए अन्य प्रदेशों से चुनाव लड़ सकते हैं तो बाहरियों को मतदान का अधिकार कैसे गलत हो सकता है?
जम्मू-कश्मीर में रहने वाले अन्य राज्यों के नागरिकों को वोट का अधिकार दिए जाने को जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील बताना, यह सिर्फ केंद्र को ब्लैकमेल करने या आम कश्मीरियों को मूर्ख बनाने की 75 साल पुरानी शोषणवादी सियासी परपंरा का हिस्सा है। यह कोई अन्य नहीं बल्कि कश्मीर आम कश्मीरी कहता है और फिर पूछता है कि महबूबा मुफ्ती को यह बताना चाहिए कि उसके पिता स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद किस हैसियत से उत्तर प्रदेश से सांसद चुने गए थे। सवाल सिर्फ मुफ्ती सईद तक सीमित नहीं रहता बल्कि कांग्रेस भी इस मुद्दे पर बैकफुट पर आ जाती है, क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद एक बार नहीं, दो बार महाराष्ट्र के वाशिम से दो बार सांसद चुने गए हैं।
सरकारी अध्यापक फारूक शाह ने कहा कि मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के पहले मुस्लिम गृहमंत्री थे। वह कहां से थे? यहीं कश्मीर के रहने वाले थे, वह पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती के पिता हैं। आज वह इस दुनिया में नहीं हैं, अगर होते तो शायद ही अन्य राज्यों के नागरिकों को यहां वोट के अधिकार का विरोध करते। महबूबा मुफ्ती को शायद याद न हो, लेकिन सच्चाई यही है कि मुफ्ती सईद 1989 में मुजफ्फरनगर से जनता दल के टिकट पर लोसभा चुनाव जीत तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के मंत्रिमंडल मे बतौर गृहमंत्री शामिल हुए थे। वह किस हैसियत से वहां चुनाव लड़े थे, एक भारतीय नागरिक की हैसियत से। अगर अन्य राज्यों के यहां रहने वाले नागरिक भारतीय नहीं है, बांग्लादेश या म्यंमार से आए हैं तो फिर एतराज जायज है। गुलाम नबी आजाद भी दो बार महाराष्ट्र से ही लोकसभा चुनाव जीते हैं।
राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता सलीम रेशी ने कहा कि यह जो बाहरी लोगों को वोट देने के अधिकार पर बवाल हो रहा है, बेमतलब है। उन्होंने कहा कि आपको याद होगा कि यहां अटल बिहारी वाजपेयी को कुछ वर्ष पहले तक लोग कश्मीर से संसदीय चुनाव लड़ने की पेशकश करते थे। उनमें से आज यहां प्रदेश में रहने वाले अन्य राज्यों के नागरिकों के मतदाता बनने पर सवाल उठा रहे हैं, विरोध कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से पहले भी जो अन्य राज्यों के नागरिक अस्थायी तौर पर या स्थायी तौर पर रहते थे, संसदीय चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग करते रहे हैं। अगर वह भाजपा के साथ देने वाले होते या भाजपा के साथ होते तो फिर यहां से पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस या कांग्रेस के उम्मीदवार संसद में सांसद बनकर नहीं बैठते। फर्क सिर्फ इतना ही कि अब यह लोग चाहें तो विधानसभा में भी वोट डाल सकते हैं। कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा।
बिलाल बशीर ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में रहने वाला कोई भी योग्य नागरिक चाहे वह पंजाब से हो या गुजरात से, बतौर मतदाता खुद को पंजीकृत करा अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकता है। मतदाताओं को गैर स्थायी निवासी मतदाता अथवा एनपीआर वोटर कहा जाता है। पिछले संसदीय चुनावों में जम्मू-कश्मीर में 32 हजार एनपीआर मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। मुझे नहीं लगता है कि यहां अस्थायी रूप से रह रहे अन्य राज्यों के नागरिक खुद को स्थायी मतदाता के रूप में पंजीकृत कराएंगे। यदि कराएंगे भी तो उनकी संख्या पूरे प्रदेश में 60-70 हजार ही होगी।
एडवोकेट अंकुर शर्मा ने कहा कि सुरक्षाबलों के बतौर मतदाता पंजीकरण को लेकर भी नेकां, पीडीपी, कांग्रेस व इन जैसे दल लोगों में जानबूझकर भ्रम पैदा कर रहे हैं, क्योंकि जम्मू-कश्मीर शांत इलाका नहीं है, इसे केंद्र सरकार ने उपद्रवग्रस्त क्षेत्र श्रेणी में रखा है। ऐसे क्षेत्रों में तैनात सुरक्षाबल सिर्फ अपने मूल प्रदेश के लिए ही मतदाता के रूप में पंजीकृत रहते हैं। अगर यह शांत इलाका होता तो ही यहां तैनात सुरक्षाकर्मी खुद को बतौर मतदाता पंजीकृत करा पाते। अगर यहां स्थिति शांत होती तो क्या यहां आठ-दस लाख फौज व केंद्रीय अर्धसैनिकबल होते।
मानवाधिकारवादी इमरान मीर ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में रहने वाले अन्य राज्यों के नागरिकों को वोट का अधिकार देने को जो लोग विरोध कर रहे हैं, वह सिर्फ अपनी सियासी दुकान बचाने के लिए कर रहे हैं। आम कश्मीरियों में वह भ्रम पैदा कर रहे हैं। महबूबा मुफ्ती यह बताए कि उसके पिता कहां से चुनाव जीत कर गृहमंत्री बने थे। अगर आज मुजफ्फरनगर का कोई नागरिक यहां कश्मीर में आकर रहता है और मतदाता बनता है तो वह उसे क्यों रोक रही हैं। उन्हें अगर अन्य राज्यों के लोगों से नफरत है तो फिर उन्होंने अपने पिता को क्यों उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने से नहीं रोका था। कश्मीर में अब आटोनामी, सेल्फ रूल और हरे रुमाल की सियासत खत्म हो चुकी है, लोगों को मूर्ख बनाने के लिए अब कोई नया तरीका चाहिए और इसलिए अब अन्य राज्यों के नागरिकों को वोट के अधिकार के मुद्दे पर आम लोगों के बीच भ्रम पैदा किया जा रहा है। केंद्र सरकार को यह संदेश देने का प्रयास किया जा रह है कि यहां हालात बिगड़ जाएंगे, इसलिए सत्ता की चाबी हमें दे दो। मतलब साफ है कि यह आज भी शोषणवादी सियासत में ही यकीन रखते हैं।
जन प्रतिनिधितव अधिनियम 1950 और 1951 के मुताबिक, देश का कोई भी नागरिक अगर वह मतदाता के तौर पर पंजीकरण की आयु को प्राप्त कर चुका है तो वह उस प्रदेश में जहां वह रहता है, चाहे वह वहां पर स्थायी तौर पर रह रहा हो या अस्थायी तौर पर, अगर अयोग्य नहीं है तो बतौर मतदाता अपना पंजीकरण करा सकता है। जम्मू-कश्मीर में भी बड़ी संख्या में अन्य राज्यों के नागरिक रोजगार, पढ़ाई के सिलसिले में रह रहे हैं। वह भी संबंधित नियम के मुताबिक, यहां मतदाता बन सकते हैं, लेकिन उन्हें पहले अपने मूल स्थान की मतदाता सूची से अपना नाम कटवाना होगा। कोई भी मतदाता दो जगहों पर अपना पंजीकरण नहीं करा सकता।
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा, "जम्मू-कश्मीर में बाहरी लोगों को वोट देने की अनुमति दिया जाना स्पष्ट रूप से चुनाव परिणामों को प्रभावित करना है। असली उद्देश्य स्थानीय लोगों को कमजोर कर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए यहाँ अपना शासन करना जारी रखना है।" मुफ्ती ने आगे कहा, "बीजेपी चोर दरवाजे से वॉटर्स लाने की कोशिश कर रही है। 25 लाख वॉटर्स बाहर से लाए जा रहे हैं। बीजेपी वास्तव में संविधान को खत्म कर रही है और केवल अपने हित में काम कर रही है। लोकतंत्र के नाम पर अराजकता फैला रही। वास्तव में ये हिन्दू राष्ट्र नहीं बीजेपी राष्ट्र है।" मुफ्ती ने कहा कि "मैंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से बात की है और उनसे एक सर्वदलीय बैठक बुलाने का अनुरोध किया है, जिसमें वे लोग भी शामिल हैं जिनसे हम असहमत हैं, ताकि हम भविष्य की कार्रवाई का खाका तैयार कर सकें।"
मुफ्ती से पहले नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने भी ट्वीट कर चुनाव आयोग के फैसले का विरोध किया था। उन्होंने लिखा, "क्या बीजेपी जम्मू-कश्मीर के मूल वॉटर्स के समर्थन को लेकर इतनी असुरक्षित है कि उसे सीटें जीतने के लिए अस्थायी मतदाताओं को इम्पोर्ट करने की जरूरत है? जब जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपने मताधिकार का प्रयोग करने का मौका दिया जाएगा तो इनमें से कोई भी चीज बीजेपी की मदद नहीं करेगी।"
पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सज्जाद गनी लोन ने सरकार के इस कदम को विनाशकारी बताया है। बता दें कि जम्मू कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी हृदेश कुमार ने घोषणा करते हुए कहा था कि कश्मीर में रहने वाले बाहरी भी अपना नाम वोटर लिस्ट में शामिल करा सकते हैं और वोट डाल सकते हैं जिसके लिए उन्हें निवास प्रमाण पत्र की भी आवश्यकता नहीं है।
परिसीमन आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्य में अब विधानसभा में सीटों की संख्या 83 से बढ़ाकर 90 कर दी गई। इनमें में 43 सीटें जम्मू में होंगी, जबकि 47 सीटें कश्मीर में होंगी। अभी तक 36 सीटें जम्मू में थी और कश्मीर में 46 सीटें थी। इन 90 सीटों में से 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित करने का भी प्रावधान किया गया है। जबकि 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित करने का प्रस्ताव है। इसके साथ ही जम्मू और कश्मीर की नई विधानसभा में लद्दाख का प्रतिनिधित्व नहीं होगा। क्योंकि वह अब केंद्र शासित प्रदेश बन चुका है।
2014 के विधानसभा चुनाव के परिणाम को देखा जाय तो पीडीपी को 28 सीटें, भाजपा को 25 सीटें, नेशनल कॉन्फ्रेंस को 15 और कांग्रेस को 12 सीटें मिलीं थी। इसमें भाजपा को केवल जम्मू क्षेत्र से जीत मिली थी, जहां हिंदुओं का प्रभाव है। वहीं उसे कश्मीर घाटी में एक भी सीट नहीं मिली थी। इसी तरह पीडीपी को केवल कश्मीर घाटी से सीटें मिली थी। भाजपा ने जम्मू की 37 में से 25 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। वहीं पीडीपी 46 में से 28 सीटें मिली थीं। इसी तरह 2008 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 21 सीटें, भाजपा को 11 सीटें, नेशनल कॉन्फ्रेंस को 28 और कांग्रेस को 20 सीटें मिलीं थी। इसमें से भाजपा को सारी सीटें जम्मू क्षेत्र ही मिली थी। जबकि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस का ज्यादातर सीटें कश्मीर घाटी में मिलीं। यानी अभी तक राज्य में अधिकतर बार सरकार बनाने वाली पार्टी, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस की कश्मीर घाटी पर निर्भरता ज्यादा थी। नए परिसीमन के साथ-साथ दूसरे राज्यों से आकर जम्मू और कश्मीर में बसने वाले राज्यों के वोटर बनने से साफ है कि नए चुनाव में 2014 और 2018 जैसी स्थिति नहीं रहने वाली है।