भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान बहुत सारी ऐसी गलतिया हुई जिन्हे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन आज़ाद भारत में उन गलतियों से सबक मिला और संविधान सभा के जरिए ऐसे देश की नींव रखी गई जिसने तय किया की धर्म राजनीती के बीच नहीं आएगा।
इसी का नतीजा था की संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं रखा गया। आज हम बात करेंगे उस संविधान सभा में हुई बहस की जिसने तय किया था की भारत में धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया सकता है।
तारीख 27 अगस्त 1947 जब भारत आज़ाद हो चुका था और संविधान सभा की बैठक थी। उस दिन सरदार पटेल ने संविधान सभा में एक प्रस्ताव रखा और उस प्रस्ताव ने तय किया की भारत में चुनाव के लिए कोई अलग से निर्वाचन प्रणाली नहीं होगी। यानि कि भारत में मुसलमानों के लिए कोई अलग निर्वाचन क्षेत्र नहीं होगा, लेकिन इस प्रस्ताव तक पहुंचना और फिर उसे पास करवाना इतना भी आसान नहीं था।
क्योंकि जब भारत में अंग्रेजों का शासन था तो पहले साल 1909 में इंडियन काउंसिल एक्ट के जरिए अंग्रेजों ने मुसलमानों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र कि व्यवस्था कर दी थी। फिर 1916 में लखनऊ समझौते के तहत कांग्रेस भी राजी हो गई थी कि चुनाव में मुसलमानों के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित रहेंगी। फिर 1935 में चार्टर एक्ट के तहत भी चुनाव में मुस्लिम आरक्षण को बरकरार रखा गया था।
आज़ादी के बाद कांग्रेस के नेताओं को ये समझ आ गया था कि धर्म के आधार पर आरक्षण कितना घातक हो सकता है। ऐसे में जब सलाहकार समिति कि पहली बैठक हुई तो उसमें तजम्मुल हुसैन समेत कई दूसरे सदस्यों ने नोटिस दिया की अल्पसंख्यकों के आरक्षण को खत्म कर दिया जाए, तो प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने मुस्लिम आरक्षण को खत्म करने कि बात से इंकार कर दिया था। ऐसे में सरदार पटेल ने कहा था कि ''सलहाकार समिति पर कोई बंधन नहीं है। वह इस मामले पर फिर से विचार कर सकती है। इस बारे में अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों में आम राय होनी चाहिए।
इस बीच सलहाकार समिति ने 24 फरवरी 1948 को एक उप समिति बनाई, जिसका काम पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल कि अल्पसंख्यक समस्याओं पर रिपोर्ट देना था। इस उपसिमिति में सरदार पटेल के अलावा पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, केएम मुंशी और बीआर आंबेडकर भी शामिल थे।
11 मई 1949 को सलहाकार समिति के सामने फिर मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा उठा, लेकिन उस दिन तजम्मुल हुसैन मौजूद नहीं थे, तो बेगम एजाज रसूल को ही बात रखनी थी।
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय अपनी किताब भारतीय सविंधान अनकही कहानी में इस घटना का विस्तार से जिक्र करते हुए लिखते है की सरदार पटेल ने एजाज रसूल के बगल में बैठे कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी की ओर देखा। दोनों की नज़र मिली तो केएम मुंशी ने बेगम रसूल से कहा कि सरदार चाहते है की आप बोले।
केएम मुंशी कि बात से बेगम रसूल को हिम्मत मिली वो उठी ओर बोली कि ''आरक्षण को खत्म किया जाना चाहिए'', तो 11 मई 1949 को ही एचसी मुखर्जी ने प्रस्ताव रखा की अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की कोई जरुरत नहीं है।
इसपर वोटिंग भी हुई और तीन के मुकाबले 58 मतों से ये प्रस्ताव पारित हो गया कि भारत के सविंधान में मुस्लिम आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा। फिर 26 जनवरी 1950 को देश का जो सविंधान लागू हुआ उसमें अल्पसंख्यकों को हर तरह के आरक्षण से बाहर रखा गया था।