वेश्यावृत्ति को कानूनी वैधता मिलनी चाहिए, इसमें कोई दोहराए नहीं है। अगर यह लोग भी सामान्य तौर पर आम नागरिकों की तरह जीवन जीना चाहते तो क्या सरकार उन्हें ऐसा दर्जा दे पाएगी? इनके लिए लोगों ने कई तरह की धारणाएं बना रखी है। लेकिन इन धारणाओं से ऊपर उठकर कभी इनके बारे में सोचेंगे तो निश्चित तौर पर एक अलग नजरिया पाएंगे। यह कहना था लेखक शिरीष खरे का।
फ्रंट लॉन में अपनी किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ पर चर्चा की। खरे ने इस किताब पर चर्चा करते हुए कहा- मेरी हर ‘अच्छी' रिपोर्ट उस जगह से होती है जहां पीड़ा और दुखों का पहाड़ है। लेखक ने अपनी इस किताब में हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीरें उकेरी हैं। ये तस्वीरें 2010 के दशक के उस भारत की हैं जो हमारी मुख्यधारा के मीडिया, राजनीतिक दलों के होर्डिंग्स और नेताओं के भाषणों से अमूमन नदारद होते हैं। शिरीष अपनी इस किताब में हमें ग्रामीण भारत, हाशिये के लोग, आदिवासी, हर तरह के वंचित समुदाय, शोषित और पीडितों से मिलवाते हैं।
खरे इस किताब के जरिए कभी कमाठीपुरा की वेश्याओं की दुनिया में ले जाता है तो कहीं वह तिरमली बंजारों के जीवन संघर्ष को उकेरता है। कभी वह पारधी लोगों के जीवन की व्यथा सुनाता है तो कभी सूरत शहर को खूबसूरत बनाने के प्रयास में वहां रहने वालों को विस्थापित करने की अमानवीय कथा बताता है। किताब के बारह में से हर अध्याय आपको एक नई दुनिया में ले जाता है, जहां आप पाते हैं कि हर जगह पर किसी न किसी तरह का शोषण, किसी न किसी तरह की अमानवीयता मौजूद है।
खरे ने अपनी किताब में घुमंतू अर्ध घुमंतू जनजाति पर खास जगह दी है। लेखक का मानना है कि जनजाति ट्रेडिशनली मनोरंजन करती है वो भी फ्री। मनोरंजन करने के बाद भी इनकी आजीविका का जरिया खत्म होता जा रहा है। इनकी सबसे बड़ी समस्या ये है कि आखिर ये जाएं कहां? ये अाते है तो अच्छे लगते है, लेकिन रुकते है तो क्राइम से जोड़ देते हैं। ये जहां भी रहते है अगर उस एरिया में कोई छोटी-बड़ी घटना होती है तो सबसे पहला आरोप इन पर लगता है। लोगों को इनके प्रति अपनी धारणा को बदलना होगा। वहीं कलाकारों की सरकार के प्रति निर्भरता पर कहा- महाराष्ट्र में कोई भी कलाकार सरकार पर निर्भर नहीं है। दिल्ली-राजस्थान में ही कलाकारों को सरकार के कोसते देखा है।