Maharana Pratap Jayanti: "मरेगा तो आखिर काफिर ही", हल्दीघाटी की लड़ाई में आखिर क्यों कही गई ये बात

देश के वीर सपूतो का जब भी जिक्र होता है तो मेवाड़ के महाराणा प्रताप उस सूची में पहली पंक्ति में नजर आते है। अपनी मातृभूमि के प्रति अगाढ़ प्रेम और समर्पण की भावना के चलते महाराणा प्रताप ने न सिर्फ मेवाड़ का गौरव बढ़ाया बल्कि मुग़ल बादशाह अकबर को नाको चने भी चबवाये।
Maharana Pratap Jayanti: "मरेगा तो आखिर काफिर ही", हल्दीघाटी की लड़ाई में आखिर क्यों कही गई ये बात
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हल्दी घाटी में समर लड़यो,

वो चेतक रो असवार कठे

मायड़ थारो वो पुत कठे

वो एकलिंग दीवान कठे

वो मेवाड़ी सिरमौर कठे

वो महाराणा प्रताप कठे

देश के वीर सपूतो का जब भी जिक्र होता है तो मेवाड़ के महाराणा प्रताप उस सूची में पहली पंक्ति में नजर आते है। अपनी मातृभूमि के प्रति अगाढ़ प्रेम और समर्पण की भावना के चलते महाराणा प्रताप ने न सिर्फ मेवाड़ का गौरव बढ़ाया बल्कि मुग़ल बादशाह अकबर को नाको चने भी चबवाये।

Maharana Pratap
Maharana Pratap

इतिहास के पन्नो को जब हम पलटते है तो मालूम चलता है की जब मुगलो का वर्चस्व अपने चरम पर था तब उस समय के कई छोटे बड़े राजा किसी न किसी तरह से मुगलो के सामने अपना आत्मसमर्पण कर रहे थे। महाराणा प्रताप जो की अपनी स्वाधीनता को ही अपना सब कुछ मानते थे ने मुगलो की सामने झुकने से न सिर्फ इंकार किया बल्कि अपनी आखरी सांस तक अकबर और उसकी फ़ौज को जमकर छकाया। मेवाड़ के वीर सपूत महाराणा प्रताप की जयंती के मौके पर आइये जानते है आज उनके जीवन के बारे में

पिता ने प्रताप नहीं बल्कि जगमाल को बनाया था अपना वारिस

महाराणा प्रताप से पहले मेवाड़ की गद्दी महाराणा उदय सिंह की थी। महाराणा उदय सिंह ने वैसे तो कोई बीस से भी अधिक शादी की थी लेकिन सबसे अधिक प्रिय उन्हें रानी धीरबाई भटियाणी थी। महाराणा का रानी के प्रति प्रेम इतना अधिक था की उन्होंने अपने अंतिम दिनों में प्रताप को अपना वारिस न घोषित करते हुए उनके और भटियाणी के पुत्र जगमाल को मेवाड़ का वारिस बनाने की घोषणा कर दी।

Image Source: BBC

जगमाल को उठाया गद्दी से

उदय सिंह की इस घोषणा से उनके दरबारी और सभी मंत्री काफी चिंतित थे। उदय सिंह के समय में ही मेवाड़ अपनी राजधानी चित्तोड़ को गँवा चुका था, ऐसे में जगमाल के राजा बनने पर मेवाड़ की स्थिति में सुधार की आशा को लेकर सबको संदेह था। दूसरी ओर प्रताप अपनी बहादुरी के कई जलवे दिखा चुके थे इसके अलावा प्रताप के वहां के भील समुदाय से काफी अच्छे रिश्ते थे जो की इससे पूर्व महाराणा उदय सिंह भी स्थापित नहीं कर सके थे। यही वजह थी की सब चाहते थे की प्रताप को ही राजगद्दी पर बिठाया जाए।

उदय सिंह की मृत्यु के बाद राजमहल में जगमाल को राजा बनाने की तैयारियां जोरो पर थी। हालाँकि प्रताप के मामा अखई राज और ग्वालियर के राम सिंह ने तब जगमाल को जो की उस समय राजगद्दी पर बैठे हुए थे को जबरन उनके दोनों हाथो से उठाते हुए गद्दी से हटा दिया और उन्हें वहीँ बिठा दिया जहाँ उदय सिंह के अन्य पुत्र बैठा करते थे। प्रताप जो की उस समय बाहर जाने की तयारी में थे उन्हें किसी तरह खोजकर राणा बनने के लिए मनाया गया और वहीँ पर एक पत्थर पर बिठाकर उनका राज्याभिषेक किया गया।

अकबर के साथ मिल गए थे महाराणा प्रताप के भाई

महाराणा प्रताप बनाम अकबर के बीच में छिड़े इस द्वंद्व में एक दिलचस्प बात ये भी थी की महाराण के खिलाफ उनके अपने ही भाई थे। जगमाल जहाँ महाराणा न बनाने की बात से नाराज होकर फ़ौरन अकबर से जा मिले थे तो वहीँ महाराणा के एक अन्य भाई शक्ति सिंह अपने पिता उदय सिंह के जीवित रहते ही अकबर से जा मिले थे। हल्दीघाटी के युद्ध में जब महाराणा ने शक्ति सिंह को देखा था उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ था जिसके बाद शक्ति सिंह ने महाराणा से माफ़ी भी मांगी थी।

हल्दीघाटी का युद्ध
हल्दीघाटी युद्ध को लेकर इतिहासकारो के अलग अलग मत है। यहाँ तक की CBSE और RBSE के पाठ्यक्रम भी इसको लेकर एकमत दिखाई नहीं पड़ते है। बहरहाल हल्दीघाटी के युद्ध को ही जब हम खंगालते है तो मालूम चलता है महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को जब जयपुर के राजा मान सिंह के हाथी ने घायल कर दिया था तो मौका पाकर मुगल सैनिको ने महाराणा प्रताप पर तीरो की बरसात कर दी।

महाराणा को मुसीबत में फंसा देखकर राणा की फ़ौज की जनरलो ने उन्हें युद्ध क्षेत्र से बाहर जाने के लिए मनाया। मुगलो को महाराणा के युद्धभूमि छोड़ने की खबर न हो इसके लिए उनके जगह मान सिंह झाला को भेजा गया और उनके सर पर महाराणा की राजसी छतरी लगाई गई। इस लड़ाई में मान सिंह झाला की मौत हो गई। झाला का परिवार पूर्व में भी इसी तरह से राज परिवार के लिए समर्पित रहा था।

हल्दीघाटी के युद्ध की एक और दिलचप बात ये है की इस युद्ध हिन्दू मुस्लिम की छाया दी भी जा सकती है और नहीं भी। और वो इसलिए क्यूंकि अकबर की फ़ौज का नेतृत्व जयपुर के राजा मान सिंह कर रहे थे जबकि महाराणा प्रताप की तरफ से मुस्लिम सिपहसालार हाकिम ख़ाँ सूर लड़ रहे थे। सो इसे हिन्दू मुस्लिम की लड़ाई तो नहीं कही जा सकती।
जब मुग़ल सेना को कहा गया 'मरेगा तो आखिर काफिर ही'
हल्दीघाटी के युद्ध में सबसे अधिक नुकसान राजपूत सेनाओ को हुआ क्यूंकि अकबर हो या महाराणा दोनोके ही तरफ से राजपूती सेना लड़ रही थी। दोनों ही सेनाओ की इस वजह से पोशाके भी एक सामान ही थी। मुगल सैनिको को ऐसे में दुश्मन को पहचानने में काफी मशक्क्त हो रही थी और उन्हें समझ नहीं आ रहा था की वो अपने बाण कौनसी सेना पर चलाये। इतिहासकार विगनेश कुमार त्यागी के मुताबिक, जब मुगल सैनिको ने इस दुविधा को बताया तो उन्हें बदले में आदेश दिया गया था की वे सिर्फ तीर चलाये क्यूंकि मरना तो काफिर को ही है।
महाराणा की मृत्यु
हल्दीघाटी युद्ध के परिणाम को यूँ तो मुगल सेना ने अपनी जीत माना लेकिन अकबर इस परिणाम से अधिक खुश नहीं दिखाई दिया। दूसरी तरफ महाराणा ने अब छापेमार युद्ध शुरू कर दिया था जिसके वजह से मुगल सेना को जंगल आदि जैसे रास्तो से जाने में डर लगने लगा था। बहरहाल महाराणा की 19 जनवरी, 1598 को मृत्यु हो गई। शिकार खेलने के दौरान महाराणा को एक चोट लगी थी जिससे वो उबर नहीं पाए। जब ये खबर अकबर को उसके दिल्ली दरबार में दी गई तब उस दौरान वहीँ पर मौजूद दुरसा आढा ने जो वहां पर कविता पाठ कर रहे थे ने अकबर से एक और कविता पाठ करने की विनती की।

दुरसा आढा की खासियत ये थी की वो दरबार में बैठे-बैठे ही कविता लिख कर उसका पाठ करते थे। दुरसा की विनती पर अकबर ने जवाब देते हुए कहा,” मेरा अब कुछ सुनने का मन तो नहीं है, लेकिन फिर भी तुम जो गाना चाहते हो वो गा दो। दुरसा आढा ने तब जो गाया उसे सुनकर अकबर भी भावुक हो गया

अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी

गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी

अकबर को इस कविता का अर्थ समझाते हुए दुरसा ने कहा, महाराणा प्रताप,आपकी मृत्यु पर शाह या बादशाह ने अपने दांतों के बीच अपनी जीभ काट ली और साँस छोड़ते हुए, उन्होंने आँसू बहाए। क्योंकि तुमने कभी अपने घोड़े तक मुगल निशान भी नहीं लगने दी। न ही तुमने कभी अपनी पगड़ी झुकने दी। तुमने अपनी प्रतिष्ठा और अपना राज्य खो दिया, लेकिन आप अपने राज्य का भार अपने बाएं कंधे पर ढोते रहे। आप कभी नवरोज नहीं गए ना ही कभी शाही शिविरों में नहीं गए। आपने गर्व के साथ दुनिया पर राज किया। इसलिए मैं कहता हूं, आप हर तरह से जीते और सम्राट हार गए ।

इस कविता को सुनकर अकबर के चेहरे पर गुस्से के भाव नहीं थे। कहते है की इस कविता के लिए अकबर ने दुरसा को इनाम भी दिया था।
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