हिंदी सिनेमा का जिक्र छिड़े तो ज़हन में सबसे पहले दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) का नाम ही आता है। इन्हें फादर ऑफ इंडियन सिनेमा कहा जाता है। आज देश में भले ही बॉलीवुड इंडस्ट्री करोड़ों डॉलर की हो चुकी है, पर इस इंडस्ट्री को बनाने में जो योगदान दादा साहेब ने दिया है इसका स्थान कोई और नहीं ले सकता है।
देश में सिनेमा का बीज इन्होंने ही बोया। जिस तरह फसल को पकाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है, उसी तरह भारत में सिनेमा की शुरुआत करने के लिए दादा साहब फाल्के ने भी काफी मेहनत की। आज देश-विदेश में बॉलीवुड की अलग पहचान है।
आज दादा साहेब फाल्के का 148वां जन्मदिन है। इस मौके पर आज हम दादा साहेब (Dadasaheb Phalke) से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों की बात करेंगे।
भारत को मनोरंज का अर्थ सिखाने वाले फाल्के ने अपनी सोच से भारत की पहली फिल्म राजा हरिशचंद्र (Raja Harishchandra) बनाई। यह फिल्म बनाना उनके लिए आसान बिल्कुल नहीं था। इसे बनाने के लिए उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया।
30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र में जन्में दादा साहेब (Dadasaheb Phalke) का असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। प्रिटिंग प्रेस और फोटोग्राफी में नाकाम रहने के बाद फाल्के ने फिल्म जगत में हाथ आजमाया। 1910 में फाल्के मुंबई के थिएटर में क्रिसमस के दौरान जीसस क्राइस्ट पर एक फिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखी। इस फिल्म को देखने के बाद फाल्के ने फिल्में बनाने का सपना देखा। अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने प्रोडक्शन सीखने का फैसला लिया। प्रोडक्शन सीखने के लिए फाल्के ने अपने एक दोस्त से दो रुपए उधार लिए और लंदन पहुंच गए। दो हफ्ते तक वहां फिल्म प्रोडक्शन से जुड़ी बारिकियां सीखीं।
फाल्के ने फिल्म बनाने का फैसला तो लिया पर पैसों की कमी के कारण यह काम थोड़ा मुश्किल लगता नजर आया। कई लोग आर्थिक सहायता के लिए आगे आए पर फिर भी पैसों की कमी पूरी नहीं हुई। फाल्के पर फिल्म बनाने का जुनून इस कदर हावी था कि इस कमी को पूरा करने के लिए फाल्के ने अपनी पत्नी सरस्वती बाई की सारी संपत्ती और गहने बेच दिए और करीब 15000 रुपये जमा किए। फाल्के के इस कदम पर उनके कई दोस्तों ने उन्हें पागल तक कह दिया था।
फाल्के ने फिल्म के किरदारों के लिए अखबारों में इश्तेहार दिए। कई लोगों ने इसमें काम करने की हामी भरी पर फिल्म में हिरोइन के किरदार करने के लिए कोई भी महिला राजी नहीं हुई। ऐसे में फाल्के खुद अपने फिल्म की हिरोइन ढूंढने के निकल पड़े। हिरोइन की तलाश में फाल्के कोठे पर जा पहुंचे, पर वहां भी उन्हें सिर्फ ना ही सुनने को मिला।
चाय पीने के लिए ढाबे पर पहुंचे फाल्के ने ढाबे के बावर्ची में अपनी फिल्म की हिरोइन को देखा। ढाबे के बावर्ची को दादा साहेब फाल्के ने 15 रुपये देकर फिल्म में हिरोइन का किरदार निभाने के लिए मनाया। फाल्के ने घर को ही स्टूडियों बना दिया और शूटिंग शुरू की। 6 महिनों की कड़ी मेहनत के बाद फिल्म बनकर तैयार हुई।
3 मई 1913 वह दिन था जब फाल्के की 6 महिनों की कड़ी पर्दे पर दिखने वाली थी। गिरगांव के कोरोनेशन थियेटर में भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिशचंद्र रिलीज (Raja Harishchandra) हुई। फिल्म देखने के लिए टिकट का प्राइज तीन आना रखा गया। ये फिल्म रिलीज होते ही हिट हो गई। इसका सबसे बड़ा कारण फिल्म का छोटा होना था। उस दौर में नाटक करीब 6-6 घंटे चलते थे। लेकिन ये 40 मिनट की फिल्म भारतीय लोगों को एक दूसरी दुनिया में ले गई।
इसके बाद दादा साहेब फाल्के ने मोहिनी भस्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, कलिया मर्दन जैसी फिल्में बनाई। जिन्हें दर्शकों द्वारा सराहा गया।
फिल्म बनाने में 15 हजार रुपए खर्च हुए। फिल्म बनाने के लिए फाल्के खुद स्क्रिप्ट राइटर, डायरेक्टर, प्रोडक्शन डिजाइनर, मेकअप आर्टिस्ट, एडिटर बन गए। 6 महीने 27 दिनों में 40 मिनट की फिल्म बनकर तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलंपिया थिएटर में फिल्म का प्रीमियर हुआ और 3 मई 1913 को गिरगांव के कोरोनेशन सिनेमा में रिलीज हुई भारत की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र। ब्रिटिश फिल्मों की न्यूडिटी वाले अनुभव के कारण कम ही लोग फिल्म देखने पहुंचे। पहले दिन फिल्म ने महज 3 रुपए कमाए, जबकि टिकट का दाम था- 4 आना।
लोकमान्य तिलक ने की थी फिल्म देखने की अपील
बॉम्बे से नासिक लाते हुए राजा हरिश्चंद्र की रील गुम हो गई। फाल्के ने दोबारा वही फिल्म बनाई, जिसे नाम दिया ‘सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र।’ विज्ञापन के बावजूद भी कमाई उतनी नहीं हो पा रही थी, जिससे फिल्म की 15 हजार की लागत निकाली जा सके। ऐसे में दादा साहेब फाल्के की मदद के लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक आगे आए। तिलक ने लोगों से अपील की कि वे ये फिल्म देखें। उनके कहने भर से सिनेमाघर में भीड़ टूट पड़ी। कुछ ही दिनों में इतनी कमाई हो गई कि फिल्म की लागत निकल गई, फायदा भी हुआ और अगली फिल्म लंका दहन बनाने पर काम भी शुरू हुआ।
दादा साहेब फाल्के ने 1918 में फिल्म बनाई कृष्ण जन्म। इस फिल्म में भगवान कृष्ण की लीलाओं को दिखाया गया। इस फिल्म ने करीब 3 लाख रुपए की कमाई की, जो उस समय की सबसे बड़ी कमाई थी। फिल्म टिकट था चार आने। ऐसा कहा जाता है कि इस फिल्म के कलेक्शन से सिनेमाघरों में सिक्कों का ढेर लग जाता था, जिन्हें टाट की बोरियों में भर कर बैलगाड़ी से फाल्के के ऑफिस ले जाया जाता था।