इस समय उत्तर प्रदेश में गंगा और अन्य नदियों के किनारे मिल रही लाशों के बाद यह बहस चल रही है कि कोरोना की दूसरी लहर ने राज्य में कितना कहर बरपाया है। माना जा रहा है कि अप्रैल के आखिर और मई के पहले सप्ताह में कोरोना ने उत्तर प्रदेश के गांवों में तबाही मचाई।
इतने बड़े पैमाने पर नदियों किनारे लाशें मिलने के बाद कई जिलों में
ग्रामीणों का कहना है कि यूपी के देहात में कोरोना का कहर अप्रैल नहीं बल्कि मार्च से ही चल रहा था।
गांव-गांव से रोजाना सर्दी-जुकाम के मरीजों के शव निकल रहे थे,
लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही थी। तब जिला प्रशासन इसे वायरल-टायफाइड के केस बता रहे थे।
एक्सपर्ट मानते हैं कि योगी आदित्यनाथ की सरकार को अब
यह तय करना जरूरी है कि करोना की दूसरी लहर यूपी में कब शुरू हुई।
कहीं ऐसा तो नहीं कि लाखों लोग करोना की चपेट में मार्च में ही आ गए थे?
इनमें से सैकड़ों लोग बिना किसी इलाज के मारे गए।
वहीं, बहुत सारे बिना सरकारी मदद के ठीक भी हो गए?
यूपी के कई स्थानीय पत्रकार मानते हैं कि मार्च में यूपी के
गांवों में लाखों लोग जुकाम-बुखार के शिकार थे,
लेकिन तब दिल्ली से लेकर लखनऊ तक सरकार ने संज्ञान नहीं लिया
और इसे वायरल के सीजन का असर बताया जाता रहा।
मार्च की शुरुआत में लग रहा था कि राज्य से कोरोना धीरे-धीरे विदा हो रहा है,
लेकिन मार्च के दूसरे-तीसरे हफ्ते से लोगों में खांसी-जुकाम का प्रकोप बढ़ने लगा।
आम तौर पर माना जाता है कि मार्च के दूसरे सप्ताह के बाद हर साल वायरल का हमला होता है।
इसलिए यह मान लिया गया कि वायरल बुखार है जो प्रत्येक वर्ष की तरह ही इस साल भी फैल रहा है।
लखनऊ से लगभग 32 किलोमीटर दूर अमानीगंज महोना के अमित मिश्रा बुखार से जूझ रहे थे। जब कई दिनों तक उनका बुखार नहीं उतरा और 4 अप्रैल को जांच कराई गई तो उन्हें कोरोना निकला। 6 अप्रैल को उनकी मौत हो गई। परिवार वालों के मुताबिक अमित मिश्रा से होली के पहले उनके भट्टे के मजदूर होली लेने आए थे, इसी के बाद उनकी तबीयत बिगड़ी।
राजधानी लखनऊ से लगभग 22 किलोमीटर दूर पहाड़पुर गांव में अशोक कुमार मार्च के तीसरे सप्ताह से ही बुखार और खांसी से परेशान थे। लक्षण कोरोना जैसे थे, लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि गांव में कोरोना घुस गया है।
लेकिन एक दिन बाद ही घर के ही बगल में रहने वाली सुमन पांडे की भी अचानक मौत हो गई तो जांच हुई और उनकी मृत्यु का कारण कोरोना निकला। इन परिवारों के इर्द-गिर्द रहने वाले दो अन्य लोगों की भी मौत हो गई।
वास्तव में यह वह दिन थे, जब उत्तर प्रदेश के अधिकांश गांव खांसी-बुखार-जुकाम से पीड़ित थे और गांव में उसे वायरल बुखार और टायफाइड बताया जा रहा था। कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि गांव के गांव वास्तव में कोरोना से पीड़ित हैं। राजधानी लखनऊ से ही सटे हर गांव में सैकड़ों लोग बीमार पड़े थे। वास्तव में मार्च के तीसरे सप्ताह में ही कोरोना ने गांव में पैर फैलाना शुरू कर दिया था। होली में लगे जमघट ने कोरोना को बढ़ाया और बाद में पंचायत चुनाव ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
कानपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर नरवल कस्बे में दर्जनों लोग पेड़ के नीचे लेट कर झोलाछाप डॉक्टर से चिकित्सा करवा रहे थे। हर पेड़ में कई-कई ग्लूकोज की बोतल लटक रही थी। यह दृश्य किसी एक गांव या कस्बे का नहीं बल्कि लगभग सभी गांवों का था।