डेस्क न्यूज – केंद्र और राज्य के चुनाव आयुक्तों की सेवा और शर्तें जब केंद्र सरकार तय करने लगेगी तो ये संघीय प्रणाली एक बड़ा आक्रमण होगा, विशेषज्ञों का तो यही कहना है।
विपक्ष इसे सिलेक्ट कमिटी में भेजने की मांग कर रहा था, लेकिन इस पर हुए राज्यसभा में मतदान में विपक्ष को 117 के मुक़ाबले 75 मत ही मिले। चलो लोकसभा में तो बीजेपी के पास बहुमत था लेकिन राज्यसभा में भी बीजेपी ने विपक्षी दलों को विश्वास में लिया और आरटीआई संशोधन बिल पास हो गया।
राष्ट्रपति की मुहर के बाद आरटीआई में संशोधन लागू हो जाएगा। नए संशोधन के तहत केंद्रीय और राज्य स्तरीय सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तें अब केंद्र सरकार तय करेगी। साथ ही सूचना आयुक्तों का सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर का दर्ज़ा भी ख़त्म हो जाएगा।
विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार ने आरटीआई एक्ट को कमज़ोर करने के लिए संशोधन किया है जबकि न तो इसमें बदलाव की कोई मांग थी और ना ही इसकी ज़रूरत।
हालांकि सरकार इन आरोपों को ख़ारिज कर रही है कि आरटीआई संशोधन बिल से इसकी स्वायत्तता कमज़ोर होगी। कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह का कहना है कि इस तरह के आरोप बेबुनियाद हैं और इनका कोई आधार नहीं है।
उन्होनें कहा, "नियम कैसे बनाए जाएं उसके लिए संशोधन अनिवार्य था। सेक्शन 27 में संशोधन लाया गया है. आरटीआई की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का संबंध सेक्शन 12 (3) से है. इसके साथ सरकार ने कोई छेड़छाड़ नहीं की है।"
आरटीआई एक्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है कि केंद्र सरकार बिना कारण इस क़ानून को कमज़ोर करने में लगी हुई थी।
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साल 2005 में जबसे ये क़ानून बना है लोग सरकारी सूचनाओं को नियत समय में पाने के हक़दार बन गए हैं। इस क़ानून के सहारे सरकार के अंदर की कई महत्वपूर्ण सूचनाएं सामने आईं जिनका संबंध सीधा लोगों से था, प्रशासनिक महकमे से था।
आरटीआई एक्ट ऐसा पहला क़ानून है जो क़रीब डेढ़ दशक में ही एक जनांदोलन बन गया और आम लोग ख़ुद को सशक्त महसूस करने लगे थे
आज से लगभग 14 साल पहले यानी 12 अक्तूबर 2005 को देश में "सूचना का अधिकार" यानी आरटीआई क़ानून लागू हुआ। इसके अंतर्गत किसी भी नागरिक को सरकार के किसी भी काम या फ़ैसले की सूचना प्राप्त करने का अधिकार हासिल है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक़ इस क़ानून को आज़ाद भारत में अब तक के सब से कामयाब क़ानूनों में से एक माना जाता है। एक अंदाज़े के मुताबिक़ इस क़ानून के तहत नागरिक हर साल 60 लाख से अधिक आवेदन देते हैं