देश में शायद ही कोई हो जो इस पारले-जी (Parle-G) देश में शायद ही कोई हो जो इस बिस्किट को पहचानता न हो। दशकों से यह बच्चों का फेवरिट, बड़ों के लिए चाय का सच्चा साथी और कई भूखे लोगों के लिए सहारा रहा है।
साल 1929 की बात है। सिल्क व्यापारी मोहनलाल दयाल ने मुंबई के विले पारले इलाके में एक पुरानी बंद पड़ी फैक्ट्री खरीदी। इसे उन्होंने कन्फेक्शनरी बनाने के लिए तैयार किया। दरअसल, मोहनलाल स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित थे। कुछ साल पहले वो जर्मनी गए और कन्फेक्शनरी बनाने की कला सीखी। 1929 में ही वो कन्फेशनरी मेकिंग मशीन लेकर भारत वापस लौटे, जिसे उन्होंने जर्मनी में 60 हजार रुपए में खरीदा था।
फैक्ट्री में 12 लोगों के साथ काम की शुरुआत हुई। ये सभी मोहनलाल के ही परिवार के सदस्य थे जो इंजीनियर, मैनेजर और कन्फेक्शनरी मेकर बन गए। कहते हैं, कंपनी के मालिक अपने काम में इतने मशगूल थे कि कंपनी का नाम तक नहीं रखा। लिहाजा समय के साथ भारत के पहले कन्फेक्शनरी ब्रांड का नाम उसकी जगह के नाम पर पड़ा- पारले।
पारले ने फैक्ट्री शुरू होने के 10 साल बाद 1939 में बिस्किट बनाना शुरू किया। उस वक्त तक भारत में मिलने वाला बिस्किट बाहर से आयात किया जाता था, इसलिए महंगा होता था। इसे सिर्फ अमीर ही खरीद पाते थे। बाजार में यूनाइटेड बिस्किट, हंटली एंड पाल्मर्स, ब्रिटानिया और ग्लाक्सो जैसे ब्रिटिश ब्रांड का कब्जा था।
पारले ने अपने बिस्किट को आम जनता के लिए सस्ती कीमत पर लॉन्च किया। भारत में बना, भारत की जनता के लिए, हर भारतीय को उपलब्ध बिस्किट जल्द ही आम जनता में लोकप्रिय हो गया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश-इंडियन आर्मी में भी पारले (Parle-G) बिस्किट की भारी डिमांड थी।
1947 में भारत को आजादी मिली। उस साल पाकिस्तान विभाजन भी हुआ और अचानक देश में गेहूं की कमी हो गई। पारले (Parle-G) को अपने ग्लूको बिस्किट का उत्पादन रोकना पड़ा क्योंकि गेहूं इसका मुख्य स्रोत था। इस संकट से उबरने के लिए पारले (Parle-G) ने जौ से बने बिस्किट बनाने शुरू कर दिए। एक विज्ञापन में कंपनी ने स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करते हुए अपने कंज्यूमर से अपील की, जब तक गेहूं की सप्लाई नॉर्मल नहीं हो जाती, तब तक जौ के बने बिस्किट का इस्तेमाल करें।
1960 के दशक तक कई अन्य ब्रांड ने भी ग्लूकोज बिस्किट लॉन्च कर दिए। इससे कंज्यूमर में कन्फ्यूजन होने लगा और इसका असर पारले बिस्किट की बिक्री पर पड़ने लगा। कंपनी ने नई पैकेजिंग बनाने का फैसला किया। अब पारले एक पीले वैक्स पेपर में लपेटकर आने लगा। इसके ऊपर लाल रंग के पारले ब्रांडिंग के साथ एक छोटी लड़की की तस्वीर होती थी। इस लड़की का इलस्ट्रेशन एवरेस्ट ब्रांड सॉल्यूशंस के मगनलाल दइया ने तैयार किया था।
नई ब्रांडिंग ने बच्चों और उनकी माताओं को भले आकर्षित किया, लेकिन अन्य ग्लूकोज बिस्किट से पारले कैसे अलग दिखे, ये समस्या जस की तस थी। साल 1982 में पारले ग्लूको को पारले-जी के रूप में री-पैकेज किया गया। इसमें G का मतलब था ग्लूकोज। पैकिंग को भी वैक्स पेपर से बदलकर कम कीमत वाले प्रिंट प्लास्टिक कवर में कर दिया गया। कंपनी के इस कदम ने ही पारले को अन्य नकली कंपनियों से अलग खड़ा कर दिया।
इसमें एक मोटे दादाजी अपने नाती-पोतों के साथ कोरस में गाते हैं- स्वाद भरे, शक्ति भरे, पारले-जी। 1998 में पारले-जी को शक्तिमान के रूप में ब्रांड एंडोर्सर मिला, जो टीवी की दुनिया का देसी सुपरहीरो था। शक्तिमान की वजह से बच्चों में पारले-जी के विज्ञापन काफी लोकप्रिय हो गए।
इसके बाद 'जी माने जीनियस', 'हिंदुस्तान की ताकत', 'रोको मत, टोको मत'… जैसी टैगलाइन ने पारले-जी को हमेशा चर्चा में बनाए रखा। पारले-जी ने अपने विज्ञापनों में सामाजिक संदेश और नॉस्टैल्जिया पर भी फोकस किया है। जैसे 2013 में एक एड कैंपेन में पारले-जी ने पेरेंट्स को अपने बच्चों को छूट देने की बात कही। टैगलाइन थी- कल के जीनियस। हाल ही में लॉन्च हुआ कैंपेन, 'वो पहली वाली बात' में नॉस्टैल्जिया को जीवंत करने की कोशिश की गई है।
पारले ने अपने मेन प्रोडक्ट को लो-प्रॉफिट मार्जिन ही रखा। यानी बड़े स्केल पर उत्पादन किया और बेहद कम मुनाफा कमाया। इससे लोगों को यह बाजार में उनकी अपेक्षा से भी सस्ता मिला।
पारले-जी बिस्किट ने जनता की सोच को समझते हुए कीमत बढ़ाने पर ज्यादा जोर नहीं दिया बल्कि अपना मुनाफा बचाए रखने के लिए पैकेट का वजन घटा दिया। बाजार से मुकाबला करने के लिए पारले ने अपने मेन प्रोडक्ट के अलावा क्रैक जैक, 20-20 जैसे अन्य बिस्किट भी बनाए। मैंगो बाइट, पारले मेलोडी जैसी कैंडी बाजार में उतारी।
आज पारले-जी के पास देश भर में 130 से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं और लगभग 50 लाख रिटेल स्टोर्स हैं। हर महीने पारले-जी 100 करोड़ से ज्यादा बिस्किट के पैकेट का उत्पादन करता है। 21 से ज्यादा देशों में पारले प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट किए जाते हैं।