सत्ता के सिहांसन तक पहुंचाने वाले प्रशांत किशोर 
राजनीति

नेताओं को सत्ता तक पहुंचाने वाला खिलाड़ी नए सियासी खेल में क्यों हुआ फेल, पीके को बिहार में क्यों लेना पड़ा यू टर्न

चर्चाओं का बाजार इतना गर्म हो गया कि हार के गर्त में डूबी कांग्रेस पार्टी अब गांधी परिवार की सरपरस्ती से बाहर आ सकती है, और प्रशांत किशोर को बड़ी जिम्मेदारी मिल सकती है। लेकिन बात सिर्फ बात ही रह गई

Deepak Kumawat

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है यहां कोई भी चुनाव लड़ सकता है अपनी राजनीतिक पार्टी बना सकता है।पिछले दशक में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने सियासी कीर्तिमान गढ़े हैं।बड़े सियासी दलों को ये समझ में आगया की कुछ भी स्थाई नहीं है,ना उनकी सत्ता ना ही उनका प्रभुत्व ऐसे में जब चुनावी रण में एक नए खिलाड़ी का जिक्र हुआ तो सभी सियासी दलों के साथ साथ पूरे समाचार जगत की नजरें भी उधर घूम गई। इस खिलाड़ी का नाम है प्रशांत किशोर

सत्ता के सिहांसन तक पहुंचाने वाले प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर भारत की राजनीति में एक रणनीतिकार के रुप में जाने जाते हैं। चुनावी कैंपेन में अलग अलग मुद्दों को हथियार बनाकर कई राजनीतिक पार्टियों को सत्ता के सिहांसन तक पहुंचाने का उनका रिकॉर्ड, उनको राजनैतिक तौर पर ज्यादा प्रसांगिक बनाता है। उनकी कंपनी के क्लाइंट बीजेपी, जनता दल युनाइटेड, तृणमूल कांग्रेस और वाई एस आर कांग्रेस पार्टी तक रह चुकी हैं इन सभी राजनैतक दलों की विचारधारा बिल्कुल अलग अलग है। हाल ही में राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी ने प्रशांत किशोर से सेवा लेने की बात बड़े जोरशोर से शुरु हुई। चर्चाओं का बाजार इतना गर्म हो गया कि हार के गर्त में डूबी कांग्रेस पार्टी अब गांधी परिवार की सरपरस्ती से बाहर आ सकती है, और प्रशांत किशोर को बड़ी जिम्मेदारी मिल सकती है। लेकिन बात सिर्फ बात ही रह गई। इसके बाद कयास लगने लगे कि प्रशांत किशोर अपने गृह राज्य में नई पार्टी खड़ी करना चाहते हैं।

पार्टी बनाना और चलाना दो अलग-अलग मुद्दे

लेकिन ये सब इतना आसान कहां कहते हैं ना ‘बड़ी कठिन है डगर पनघट की’ और राजनीति में तो हर एक कदम बहुत कठिन होता है। इसलिए प्रशांत की पार्टी बनाने की बात बहुत जल्द शांत होने लगी। क्यों कि बिहार में पार्टी बनाना इतना आसान नहीं है, वो भी तब जब सियासी बाजार में नीतीश-लालू-मांझी-चिराग जैसे खिलाड़ी मौजूद हों। पार्टी बनाना और चलाना दो अलग-अलग मुद्दे हैं। वहीं, बिहार के इन चारों नेताओं ने किसी भी तरह की विचारधारा को नहीं छोड़ा है कि जिसको आधार बनाकर नई पार्टी बनाई जा सके। मतलब अगर आप पार्टी बनाने से पहले विचारधारा को चुनना चाहते हैं तो इनमें से किसी एक को चुनना होगा। प्रशांत किशोर भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं, उन्होंने समय और अवसर को देखते हुए इस विचार पर हाथ मारा कि नीतीश ने कोशिश की है और कोशिश करके सत्ता हासिल की है… यानी बापू की राह पर चलकर... इसे नीतीश के खिलाफ नीतीश का हथियार ही समझ सकते है

इस सियासी खेल को पूरी तरह से समझने के लिए आपको प्रशांत किशोर द्वारा पटना में कही गई इन बातों पर गौर करना होगा....

1. 3000 किलोमीटर की यात्रा

मैं कोई नई पार्टी नहीं बनाने जा रहा हूं। मैं चंपारण से (2 अक्टूबर को) 3000 किलोमीटर की यात्रा शुरू करूंगा। मैं व्यक्तिगत हाइक करूंगा। अब बात की गहराई में जाते हैं। नीतीश ने अपना सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक 2015 में तब खेला था जब उन्होंने महागठबंधन का नेतृत्व कर चुनाव लड़ा था। यानी बापू के बताए रास्ते पर चलकर शराब पर प्रतिबंध लगाना। तब नीतीश ने बिहार के लोगों को बापू की बातों पर चलने की सलाह दी। लालू के साथ रहते हुए भी नीतीश को सत्ता मिली। पीके ने महसूस किया था कि बिहार की राजनीति में अब सकारात्मकता और सामाजिक सुधार बहुत महत्वपूर्ण हैं और इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा दिखाया गया मार्ग ही सत्ता की सीढ़ी बन सकता है।

2. बिहार आज भी पिछड़ा राज्य

लालू यादव ने 15 साल और नीतीश कुमार ने 15 साल शासन किया। दोनों काम कर चुके हैं। लेकिन नीति आयोग के रिपोर्ट के अनुसार बिहार आज भी पिछड़ा राज्य है। न तो काहू से दोस्ती और न ही काहू से नफरत, पीके ने इन दोनों नेताओं पर हमला करने पर भी अपना हथियार छिपाकर ये बयान दिया। वह दोनों की तारीफ तो करेंगे लेकिन उसमें इफ-बट-ट्रिक डालते रहेंगे। सांप भी मर जाएगा और छड़ी नहीं टूटेगी।

3. हम सुशासन की बात करते हैं

प्रशांत किशोर ने कहा कि जन सूरज का अर्थ है सुशासन... हम सुशासन की बात करते हैं, वही बात फिर से है... पीके का हर विचार नीतीश का उपयोग कर रहे है, बस उसका नाम बदल रहा है। जैसे नीतीश का सुशासन, प्रशांत किशोर का जन सूरज। यानी नीतीश का हथियार, बस धार अलग है और इस्तेमाल भी अलग... लेकिन यह नीतीश पर ही चलेगा।

क्या राजनीतिक रणनीतिकार सियासी छाप छोड़ पाएंगे?

बड़ा सवाल यह भी है कि प्रशांत किशोर इस मिशन में कितने सफल होंगे? इसका जवाब भी पीके के बयानों में छिपा है। पीके ने खुद को तेजस्वी से छोटा बताते हुए कहा कि तेजस्वी के माता-पिता 3 दशक से राजनीति में हैं और अभी भी 'शुरुआती' हैं। समझ लें कि प्रशांत किशोर ने भी आगे की सोची है। सफलता मिले तो जय-जय और न मिले तो यह सूत्र कि पहली बार में ही सफलता नहीं मिलती, उसके लिए प्रयास जारी रखना चाहिए।

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