तालिबान ने अफगानिस्तान पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया है। इसका असर न सिर्फ दुनिया और दक्षिण एशिया पर होगा, बल्कि पाकिस्तान पर भी जरूर होगा। पाकिस्तान तालिबान का खुला समर्थक है। ISI तालिबान को फंड करती रही है। तालिबान में बड़ी तादाद में पाकिस्तानी लड़ाके भी हैं। काबुल पर तालिबान के काबिज होते ही पाकिस्तान ने खुशी का इजहार किया है।
सवाल,लेकिन, ये है कि अफगानिस्तान में तालिबान की जीत पर पाकिस्तान की ये खुशी कब तक रहेगी? खासकर तब जब पाकिस्तान में कई आतंकवादी समूह सक्रिय हैं और कई इस्लामवादी राजनीतिक पार्टियां हैं। पाकिस्तान में कट्टर इस्लामी पार्टियों का ठोस आधार है और कई पार्टियों के कार्यकर्ता अपना एजेंडा लागू करने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने के लिए भी तैयार दिखते हैं। भले ही इन राजनीतिक पार्टियों के पास संख्याबल न हो, लेकिन 'इस्लामिक देश' में इनका प्रभाव संख्याबल से कहीं ज्यादा है।
तहरीक-ए-लब्बैक या रसूलअल्लाह, जमात-ए-इस्लामी और जमितयत-ए-उलेमा-इस्लाम जैसी पार्टियों का असर तो खासा बढ़ रहा है।
पिछले साल ही तहरीक-ए-लब्बैक के कार्यकर्ताओं ने इस्लामाबाद के रास्ते बंद कर दिए थे। और सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं, पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे कई इस्लामवादी आतंकवादी समूह भी हैं।
अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत-उल-मुजाहीदीन और इस्लामिक स्टेट इन खैबर पख्तूनख्वा, ऐसे संगठन हैं जिनकी गतिविधियां किसी से छुपी नहीं हैं।
तालिबान की जीत का मतलब ये है कि अब अफगानिस्तान पर अमेरिका और अमेरिका के नए दोस्त भारत का असर कम होगा और पाकिस्तान का असर बढ़ेगा। अफगानिस्तान में भारत जो निवेश कर रहा था वो भी रुक जाएंगे। अफगानिस्तान पर असर बढ़ने से इस क्षेत्र में पाकिस्तान को एक स्ट्रेटेजिक बढ़त मिलेगी। पाकिस्तान को हमेशा ये डर लगा रहता था कि भारत उसे दो तरफ से घेर रहा है। एक तो अफगानिस्तान से और दूसरा भारत से। पाकिस्तान का ये डर अब खत्म हो जाएगा।
अफगानिस्तान में तालिबान की कामयाबी का असर पाकिस्तान के समाज पर बहुत नकारात्मक पड़ेगा। पाकिस्तान में इस्लामी हुकूमत या निजाम-ए-मोहम्मदिया जैसे नारे इस्तेमाल करने वाले संगठनों की, जिनमें तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान भी शामिल है, हिम्मत बढ़ेगी। न सिर्फ उनके हौसले बढ़ेंगे, बल्कि अफगानिस्तान तालिबान से उन्हें सहयोग भी मिलेगा।
अफगानिस्तान एक इतना बड़ा देश है कि उस पर पूरी तरह नियंत्रण करना किसी एक ग्रुप के बस में नहीं हैं। अफगानिस्तान में ऐसी कई जगहें होंगी जहां पर हथियारबंद समूह अपने अड्डे ऑपरेट कर सकते हैं। ये हथियारबंद ग्रुप न सिर्फ चीन और भारत, बल्कि खुद पाकिस्तान के लिए सिक्योरिटी रिस्क बन सकते हैं।
एक तरह से तालिबान की अफगानिस्तान में जीत पाकिस्तान के लिए मिक्स्ड ब्लेसिंग है। एक तरफ तो वैश्विक राजनीति में उसका असर बढ़ रहा है, उसे रणनीतिक बढ़त मिल रही है, वहीं दूसरी तरफ उसके अपने तालिबान के साये में घिरने का खतरा है। अफगानिस्तान में तालिबान पाकिस्तान की राजनीतिक सिक्योरिटी के लिए तो फायदेमंद है, लेकिन उसके अपने समाज और इंटरनल सिक्योरिटी के लिए खतरनाक है। आगे चलकर तालिबान पाकिस्तान के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।
पाकिस्तान में भी इस्लामी हुकूमत (शरिया कानून) लागू करने का जोश बढ़ जाएगा और इससे पाकिस्तान में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की हालत और बुरी होती जाएगी। एक तरह से तालिबान पाकिस्तान के लिए भी मसला बन सकता है।
कई विश्लेषकों का कहना है और मुझे भी ये लगता है कि तालिबान की ये पारी 1996 वाली उनकी पारी से अलग होगी और बेहतर होगी। सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका ने तालिबान के साथ वार्ता और समझौता करके तालिबान को वैधता दे दी है। इस समझौते के तहत ही एक तरह से अमेरिका ने अफगानिस्तान को तालिबान को वापस सौंप दिया है। जब भी अमेरिकी विदेश मंत्री एंथोनी ब्लिंकेन से पूछा जाता है कि क्या अमेरिका तालिबान की सरकार को मान्यता देगा, तो उन्होंने कभी भी साफ़ तौर पर इंकार नहीं किया है।
तालिबान के लिए सबसे बड़ा बदलाव ये हुआ है कि इस बार उन्हें अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल सकती है, जो पहली बार उन्हें नहीं मिली थी। तालिबान इस बात का भी सबूत दे रहे हैं कि वो सीख रहे हैं। वो मीडिया और सोशल मीडिया का बेहतर इस्तेमाल कर रहे हैं और अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं। तालिबान इस बात का अहसास कर चुके हैं कि अगर वो अफगानिस्तान में कामयाब होना चाहते हैं तो उन्हें अपनी छवि सुधारनी होगी।
अफगानिस्तान में तालिबान भारत के लिए बड़ा खतरा हो सकता है, क्योंकि अफगानिस्तान भारत विरोधी आतंकवादी समूहों की पनाहगाह बन सकता है। अब भारत को तालिबान के साथ फूंक-फूंक कर और बेहद संभलकर रिश्ते रखने होंगे।
मैं तो यही कहूंगा कि भारत सरकार अब अपनी अफगानिस्तान नीति को अमेरिकी विदेश नीति से अलग और आजाद रखे। भारत को कोशिश यह करनी चाहिए कि वो अफगानिस्तान में अपने हितों को पहले और अमेरिका को हितों का बाद में ध्यान दे।
ये आशंका है कि तालिबान की सत्ता में औरतों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासकर शियाओं, के अधिकार मारे जाएंगे। जहां पर तालिबान का कब्जा है वहां लड़कियों को स्कूल जाने से मना कर दिया गया है। महिलाओं को ऐसी नौकरियों से हटा दिया गया है जहां उन्हें लोगों से बात करनी पड़ती है।
इसके बावजूद उम्मीद की जाती है कि काबुल और जलालाबाद जैसे बड़े शहरों में तालिबान औरतों को काम करने दें, यह दिखाने के लिए कि वे औरतों का सम्मान करते हैं। तालिबान ने यह कहा भी है कि 'इस्लाम में औरतों के जो हक हैं' हम उनका सम्मान करेंगे। यानी, वो कह रहे हैं कि इस्लामिक शरियत के मुताबिक वो औरतों को हक देंगे, इससे साफ है कि औरतों की जो भी सार्वजनिक भूमिका होगी वो खत्म हो जाएगी।