News: देश में ‘किसान आंदोलन 2.0’ शुरू हो चुका है। कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार पर सिख विरोधी होने का आरोप लगा रही है।
दिल्ली आने के लिए हरियाणा की सीमा पर डटे अधिकतर किसान पंजाब के ही हैं। पिछली बार जब किसान आंदोलन हुआ था तो खालिस्तानी ताकतों ने उसे हाईजैक कर लिया था और जम कर उत्पात मचाया था।
देश में लोकसभा चुनाव से पहले विभाजन वाली राजनीति खेली जा रही है। हालांकि, पंजाब और सिखों के इतिहास को समझने के लिए हमें जवाहरलाल नेहरू की नीतियों को भी देखना पड़ेगा।
जब बात पंजाब में उग्रवाद की आती है तो हमें इंदिरा गांधी का दौर याद आ जाता है जब स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना को घुसना पड़ा था, क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही पैदा हुआ आतंकी जरनैल सिंह भिंडरावाले वहां छिपा हुआ था।
तब तक वो देश के लिए एक नासूर बन चुका था। इस कारण ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ चलाना पड़ा। हालांकि, यही इंदिरा गांधी की हत्या का भी कारण बना जब सिख अंगरक्षकों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी।
इसके बाद सिख नरसंहार हुआ, राजीव गांधी ने ‘कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है’ वाला बयान दिया।
लेकिन, पंजाब के इतिहास का एक ऐसा ही अध्याय नेहरू काल से भी जुड़ा है। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब ये 552 रियासतों में बंटा हुआ था, जिन्हें सरदार वल्लभभाई पटेल ने एक किया। 1956 में ‘राज्य पुनर्गठन अधिनियम’ आया, जिसके तहत नए प्रदेशों का निर्माण हुआ और पूर्व के प्रदेशों की सीमाओं में परिवर्तन किया गया।
मैसूर से केरल, मद्रास से आंध्र प्रदेश, पंजाब से हिमाचल प्रदेश (तब केंद्र शासित) और असम से त्रिपुरा और मणिपुर (दोनों केंद्र शासित) को अलग किया गया। दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला।
हालांकि, ये वो और भी था जब ‘पंजाबी सूबा मूवमेंट’ भी चल रहा था। इसके तहत सिख लोग अपने लिए भारत के भीतर ही एक स्वतंत्र राज्य का गठन चाहते थे, जहां के नियम-कानून उनके हिसाब से हों। इसे हम खालिस्तानी आतंकी विचारधारा का पूर्वज कह सकते हैं।
लेकिन, जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रधानमंत्री रहते ‘पंजाब सूबा मूवमेंट’ की मांग को स्वीकार नहीं किया। 1966 में ‘पंजाब पुनर्गठन अधिनियम’ के तहत इसे अलग राज्य का दर्जा मिला, नेहरू के निधन के 2 वर्ष बाद।
अलग पंजाबी सूबा की मांग वाले अभियान का नेतृत्व ‘अकाली दल’ कर रहा था। कांग्रेस पार्टी खुलेआम इसके विरोध में थी।
1950 तक प्रतापसिंह कैरों की अध्यक्षता वाली प्रदेश कॉन्ग्रेस कमिटी ने अपनी पूरी ताकत इस मुहिम के विरोध में झोंकी हुई थी।
उस दौरान आर्य समाज भी पंजाब में सक्रिय था। पंजाब के कई हिन्दुओं ने पंजाबी भाषा को अपना मानने से इनकार कर दिया था। ‘अकाली दल’ का जोर था कि लोग अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में पंजाबी ही दर्ज कराएं ।
फिर तत्कालीन PM नेहरू ने इस समस्या का ये तोड़ निकाला कि पंजाब में जनगणना के दौरान भाषा दर्ज ही न की जाए। इस तरह 1951 में भाषा के नाम ही पंजाब में दरारें पैदा हो गई थीं।
एक तरफ आक्रामक रवैया वाले ‘अकाली दल’ के समर्थक थे, दूसरी तरफ पंजाब का गैर-सिख समुदाय।
4 जनवरी, 1952 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पटियाला में दिए गए भाषण में स्पष्ट कहा कि पंजाब सूबे के निर्माण से देश का विभाजन होगा।
उन्होंने खुल कर ऐलान किया, “मैं दोबारा भारत का बटवारा नहीं होने दूंगा। मैं और कोई परेशानी खड़ी नहीं होने दूंगा, पूरी ताकत से इसे दबाऊँगा।
जनता का साथ भी देश के पहले आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को मिला और ‘शिरोमणि अकाली दल’ को पराजय का सामना करना पड़ा।
अमृतसर और गुरदासपुर जैसे सिख बहुल जिलों में भी Congress ने ही बाजी मारी। जालंधर और गुरदासपुर में तो ‘अकाली दल’ का खाता तक नहीं खुला।
पार्टी ने पतित सांप्रदायिकता और बेईमानी को अपनी हार की वजह बताई और अलग पंजाब सूबे की मांग जारी रखी। इस दौरान ये जिक्र करना आवश्यक है कि उस दौरान ‘ईस्ट पंजाब’ प्रान्त हुआ करता था।
East पंजाब मतलब पंजाब का वो इलाका जो विभाजन के बाद भारत में रह गया। वहीं West पंजाब पाकिस्तान में चला गया।
1950 में भारत के संविधान में ईस्ट पंजाब को ही पंजाब कहा गया। फिर PEPSU (पटियाला एन्ड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन) का गठन हुआ, 8 विभिन्न रियासतों और 2 छोटे रियासतों को मिला कर। उस दौरान शिमला और कसौली भी इसी का हिस्सा हुआ करते थे।
1956 में इसे ‘स्टेट ऑफ पंजाब’ कहा गया और 1966 में इसे पंजाब का उस रूप में गठन हुआ जिसे हम आज देखते हैं, हरियाणा (तब पंजाब का दक्षिणी हिस्सा) बना और चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश बना।
जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना था तब 1954 में उसके समक्ष ‘अकाली दल’ ने ज्ञापन देकर भाषा के आधार पर पंजाब के गठन की माँग की। उसने ज्ञापन देकर बताया कि पंजाब एक अलग भाषा है, जिसके पास गुरुमुखी लिपि भी है जो ब्राह्मी से उत्पन्न हुई है।
वहीं Congress ने पंजाब, PEPSU और हिमाचल प्रदेश – इन तीनों को मिला कर उसने पंजाबी सूबा के निर्माण की मांग की। जनसंघ ने इसमें दिल्ली को भी मिला कर ‘महा पंजाब’ राज्य के गठन की मांग की।
राज्य पुनर्गठन आयोग ने पंजाबी को हिंदी से अलग भाषा नहीं माना और जन-समर्थन के अभाव को कारण बता कर अलग सूबे के गठन की मांग को अस्वीकार कर दिया था।
तत्कालीन केंद्र सरकार मानती थी कि पंजाब का भाषा के आधार पर विभाजन का अर्थ होगा धर्म के आधार पर बटवारा, जिसका दंश देश झेल चुका था।
जबकि पंजाब में बड़ी संख्या में हिन्दीभाषी भी थे। आँकड़ों की मानें तो आंदोलन में सक्रिय 12,000 सिखों को 1955 में और 26,000 सिखों को 1956 में गिरफ्तार किया गया था।
उस समय हालात ऐसे हो गए थे कि अप्रैल 1955 में अमृतसर प्रशासन ने ‘पंजाबी सूबा’ और ‘महा पंजाब’ के नारों को ही प्रतिबंधित कर दिया। उस दौरान ‘सीने के बीच गोली खाएँगे, पंजाबी सूबा बनाएँगे’ नारा भी लगाया जाता था।
SAD ने नारे के बैन होने के बाद एक बड़ी बैठक बुलाई। 10 मई, 1955 से आंदोलन की घोषणा की गई। रोज अमृतसर स्थित अकाल तख़्त के सामने प्रार्थना के लिए दर्जनों सिख जमा होते थे, फिर पंजाबी सूबा के समर्थन में नारेबाजी होती थी।
July में जब में आंदोलन तेज़ हो गया और बड़ी संख्या में सिख ‘अकाल तख़्त’ के समक्ष पहुंचे। स्वर्ण मंदिर के आसपास सुरक्षा का भारी बंदोबस्त किया गया। कई हथियारों के लाइसेंस रद्द किए गए।
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (SGPC)’ के पास जो हथियार थे उन्हें भी सरकार ने जब्त करने की कोशिश की। इसके बाद स्वर्ण मंदिर में पुलिसिया कार्रवाई हुई। डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस अश्विनी कुमार ने 4 जुलाई, 1955 को फ़ोर्स के साथ स्वर्ण मंदिर परिसर में मार्च किया।
वहां स्थित कम्युनिटी किचन को सील कर लिया गया और लंगर बंद करवा दिया गया। पुलिस वहाँ से बर्तन तक उठा कर ले गई।
गुरु रामदास सराय होटल में भी छापेमारी हुई। स्वर्ण मंदिर के कई मुख्य ग्रंथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। SGPC और SAD के दफ्तरों को सील कर लिया गया।
स्वर्ण मंदिर की परिक्रमा वाले मार्ग पर आंसू गैस के गोले दागे गए। परिसर के भीतर ही पुलिस ने Flag March किया। पूरे दिन ये कार्रवाई चली और इस दौरान स्वर्ण मंदिर का मुख्य दरवाजा बंद रखा गया।
इस दौरान स्वर्ण मंदिर से 237 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद सिख और ज्यादा उग्र हो गए। अकेले जुलाई महीने के पहले हफ्ते में गिरफ्तार सिखों की संख्या 8000 के पार पहुँच गई थी।
आखिरकार पंजाब के तत्कालीन CM भीम सिंह सचर को नारों पर से बैन हटाने पड़े। अकाली दल’ के नेता मास्टर तारा सिंह को रिहा करना पड़ा।
खुद मुख्यमंत्री को सितंबर महीने में स्वर्ण मंदिर पहुंच कर इस कार्रवाई के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी थी। इसे ‘मिनी ब्लू स्टार’ ऑपरेशन भी कहा जाता रहा है।
जवाहरलाल नेहरू का स्पष्ट मानना था कि ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ सांप्रदायिक है। उनका कहना था कि उन्हें बड़ा दुःख होता है जब वो सिखों को एक निरर्थक मुद्दे पर आंदोलन करते देखते हैं।
उन्होंने कहा था कि ‘अकाली दल’ जो कर रहा है उससे न उसे फायदा होगा न देश को। उन्होंने पूछा था कि क्या देश में एक और गृह युद्ध शुरू किया जा रहा है? उन्होंने कहा था कि अगर हर छोटा बड़ा समूह अपनी ताकत इसी तरह दिखाने लगेगा तो इससे देश का नुकसान होगा।
उन्होंने पंजाब और सिखों और हिन्दुओं से अपील की थी कि वो झगड़े को छोड़ें और राज्य को अराजकता से बाहर लाएं । अगस्त 1955 में जवाहरलाल नेहरू ने पंजाब के मुख्य सचिव को पत्र लिख कर जेल में बंद अकालियों को रिहा करने के लिए कहा था, क्योंकि वो एक-दो महीने भीतर रह चुके थे।
उन्होंने माना था कि इनकी संख्या हजारों में है, ऐसे में उन्हें समूहों में रिहा किया जाए। इस तरह नेहरू और कांग्रेस तब पंजाबी सूबा आंदोलन के खिलाफ थे, जबकि वर्तमान के कांग्रसी खालिस्तानी आंदोलन को भी हवा देते हैं।
खालिस्तानी की जवाहरलाल नेहरू की आलोचना करते थे। ‘अकाल तख़्त’ के पूर्व जत्थेदार जसबीर सिंह रोड ने कहा था कि स्वतंत्रता से पूर्व जवाहरलाल नेहरू ने सिखों से जो वादा किया था, वो उन्होंने नहीं निभाया।
बकौल जसबीर सिंह, जूते पहने पुलिसकर्मियों ने तब गोल्डन टेम्पल में घुस कर ‘अकाल तख़्त’ पर गोलीबारी की थी। उन्होंने दावा किया था कि कई सिख उस हमले में मारे गए थे। रोड ने जुलाई 2020 में इसकी 75वीं बरसी पर इसका जिक्र किया था।