पाॅलिटिकल डेस्क. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी में आने के बाद हमेशा अपने निर्णयों से लोगों को चौंका रहे हैं। ऐसा ही वकया रविवार को देखने को मिला। उन्होंने सिंधिया राजघराने का वो इतिहास बदल कर रख दिया, जिसे अक्सर रानी लक्ष्मी बाई से सींधिया परिवार की गद्दारी को जोड़ कर देखा जाता था। ऐसे में विरोधी अब सोवने पर मजबूर हो गए हैं। ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई की समाधि पर जाकर उन्हें नमन कर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उन लोगों की बोलती बंद कर दी, जो सिंधिया परिवार को गद्दार का तमगा दिया करते थे।
पिछले ही साल 2020 तक भाजपा सिंधिया परिवार पर 1857 की क्रांति के समय लक्ष्मीबाई से विश्वासघात का आरोप लगाते रहे थे, लेकिन तभी ज्योतिरादित्य सिंधिया पाला बदल भाजपा में शामिल हो गए। सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस नेताओं ने कसर नहीं छोड़ी और उन्हें देशद्रोही का तमगा दे दिया।
बता दें कि हमेशा से सिंधिया परिवार पर 1857 के विद्रोह में देशद्रोह का आरोप लगाया जाता रहा है। उनके परिवार पर आरोप लगाया गया था कि ग्वालियर राजघराने ने ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ दिया था। इस मुद्दे पर ज्योतिरादित्य ने कुछ माह पहले ही इंदौर में सार्वजनिक रूप से सफाई दी थी, लेकिन परिवारिक दाग को नही धो सके।
जब ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया कांग्रेस में थे, तब भाजपा ने झांसी की रानी को विश्वासघात के लिए घेरा था। बजरंग दल के पूर्व अध्यक्ष जयभान सिंह पवैया इसके लिए हमेशा सिंधिया परिवार पर प्रहार करते रहते थे। सिंधिया जब बीजेपी में आए तो अब इसे लेकर कांग्रेस हमलावर हो गई। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सिंधिया ने उसी दाग को धोने के लिए यह कदम उठाया।
एतिहासिक दस्तावेजों की मानें तो जब झांसी की रानी से कालपी भी छीन गई तब रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे की सहयाता से ग्वालियर पर हमला कर दिया। रानी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में बागी ग्वालियर आए, उसी दौरान सिंधिया की निजी सेना ने फिर बागियों को लेकर सहाननुभूति दिखाई। ऐसे में ग्वालियर पर विद्रोहियों का कब्जा हो चुका था। वहीं कहा जाता है कि जयाजीराव सिंधिया को मजबूर कर दिया गया कि वो अंग्रेजों के कब्जे वाली सेना का नेतृत्व करें। उस समय जयाजीराव सिंधिया के सामने दो मजबूरियां थी, पहली तो उसे अंग्रेजी सरकार से ग्वालियर के राजा होने की मान्यता नहीं प्राप्त थी और दूसरी ये कि अगर वो ऐसा नहीं करता तो अंग्रेजी हुकूमत उनके किले पर कब्जा कर लेती।
1803 में सिंधिया घराना युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से हार गया था। इसके बाद दोनों के बीच संधि पर बात बनी और सिंधिया ने अंग्रेजों के मातहत रहने की शर्त स्वीकार की। इस बात को मजबूती तब और मिल जाती है जब हिंदी की प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता में इस का जिक्र किया था। लाइनें हैं, ''बुंदेलों हर बोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी, अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी।''
लेकिन वर्तमान में अब ये भी कहा जा रहा है कि ज्योतिरादित्य की ओर से झांसी की रानी को नमन करना शायद सिंधिया परिवार के दाग को धोने में नाकाफी हो। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में आने के बाद लगातार अपनी इमेज बदलने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो सिंधिया ने भाजपा में शामिल होने के बाद अपनी राजपरिवार वाली पूरी छवि बदल दी है। कभी वे झाड़ू लगाते दिखते हैं तो कभी क्रिकेट खेलते नजर आते हैं, अब उन्होंने लक्ष्मीबाई की समाधि पर जाकर उन्हें नमन कर बढ़प्पन दिखाया है। क्योंकि कांग्रेस में रहते हुए उनकी छवि महाराज वाली ही बनी हुई थी।
ज्योतिरादित्य सिंधिया का जन्म साल 1971 में मुंबई में हुआ था। माधवराव सिंधिया और माधवी राजे सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने देहरादून के दून स्कूल से पढ़ाई की और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से इकनॉमिक्स में ग्रेजुएशन कर लिया। साल 2001 में ज्योतिरादित्य स्टैनफोर्ड ग्रेजुएट स्कूल ऑफ बिजनेस से एमबीए पूरा कर चुके थे लेकिन ये वही साल था जब ज्योतिरादित्य की भूमिका इंडियन पॉलिटिक्स के लिए तय हो गई थी। साल 2001 में पिता माधवराव सिंधिया की एक हादसे में मौत के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राजनीति में कदम रखा। 2002 में ज्योतिरादित्य ने मध्यप्रदेश के गुना लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीत हासिल की। ये उनके पिता माधवराव सिंधिया की सीट हुआ करती थी। 2004, 2009 और 2014 में भी लगातार ज्योतिरादित्य गुना से जीतते रहे हैं, लेकिन 2019 में हुए आम चुनाव में ज्योतिरादित्य पहली बार गुना से चुनाव हार गए थे।
सिंस इंडिपेंडेंस नॉलेज
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