(INDEPENDENCE DAY OF BANGLADESH)1947 में जब भारत का विभाजन स्वतंत्रता के साथ हुआ, तब दो पाकिस्तान अस्तित्व में आए। एक पश्चिमी पाकिस्तान है - जिसे अब पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान - जिसे अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। दोनों पाकिस्तानों के बीच की दूरी 2000 किलोमीटर से अधिक थी और सांस्कृतिक रूप से उससे भी अधिक थी।
पश्चिमी पाकिस्तान की राजनीति में पंजाबी और उर्दू बोलने वालों का दबदबा था। वहीं, पूर्वी पाकिस्तान बंगाली भाषी था। पाकिस्तान बनने के बाद भाषा और संस्कृति का यह अंतर खाई में बदलने लगा। मामला सिर्फ भाषा का नहीं था। पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित सरकार पूर्वी हिस्से की हर तरह से उपेक्षा करती थी, चाहे वह आर्थिक मामला हो या उनकी राजनीतिक मांगें हो।
(INDEPENDENCE DAY OF BANGLADESH) 1969 में, जनरल याह्या खान ने फील्ड मार्शल अयूब खान से पाकिस्तान की बागडोर संभाली और अगले वर्ष चुनावों की घोषणा की गई। स्वतंत्र पाकिस्तान के सही मायने में ये पहले चुनाव थे। 1970 में हुए इन चुनावों में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की 162 सीटों में से 160 सीटों पर जीत हासिल की थी।
जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने पश्चिमी पाकिस्तान की 138 में से 81 सीटों पर जीत हासिल की। रहमान के पास बहुमत था और उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए था, लेकिन पाकिस्तान के सैन्य शासन ने ऐसा नहीं होने दिया। भुट्टो ने मुजीबुर्रहमान से कई हफ्तों तक बात की, लेकिन जब कुछ भी हल नहीं हुआ तो याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार करना शुरू कर दिया।
मार्च 1971 तक अवामी लीग के काडर सड़कों पर थे। लगातार प्रदर्शन हो रहे थे, हड़तालें चल रही थीं। पाकिस्तान की सेना खुलेआम बर्बरता कर रही थी। हमुदुर रहमान आयोग ने मौतों का आधिकारिक आंकड़ा 26,000 रखा था जबकि लाखों शरणार्थीयों ने भारत में शरण ली थी।
भारत ने शुरू से ही अवामी लीग और मुजीबुर्रहमान को अपना समर्थन दिया था। पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सीधे तौर पर दखल देने का फैसला नहीं लिया था। हालांकि भारतीय सेना की पूर्वी कमान ने पूर्वी पाकिस्तान में ऑपरेशन की जिम्मेदारी संभाली।
15 मई 1971 को, भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन जैकपॉट' शुरू किया और इसके तहत मुक्ति वाहिनी के सेनानियों को प्रशिक्षण, हथियार, धन और उपकरणों की आपूर्ति शुरू की। मुक्ति वाहिनी पूर्वी पाकिस्तान की सैन्य, अर्धसैनिक और नागरिक सेना थी। इसका लक्ष्य गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से पूर्वी पाकिस्तान की स्वतंत्रता था।
भारतीय सेना अभी तक इस युद्ध में शामिल नहीं हुई थी लेकिन दिसंबर 1971 में पाकिस्तान ने इसका कारण दे दिया। 3 दिसंबर 1971 को, पाकिस्तानी वायु सेना ने भारत के हमले की आशंका में पश्चिमी क्षेत्रों पर हमला किया। 4 दिसंबर की सुबह तक भारत ने आधिकारिक तौर पर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।
1971 की जंग शुरू होने से पहले पीएम इंदिरा गांधी ने कई पहलुओं पर रणनीति बनाई थी। उन्होंने अपने सैन्य जनरलों को मुक्ति वाहिनी को अपने तरीके से तैयार करने की पूरी आजादी दी और साथ ही आने वाले राजनयिक संकट के लिए खुद को तैयार किया।
1971 के युद्ध के लिए इंदिरा की दृष्टि बहुत स्पष्ट थी कि युध्द संक्षिप्त और निर्णायक होना चाहिए। जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, अमेरिका और चीन जैसे देशों के हस्तक्षेप का डर पैदा होने लगा। पूर्वी पाकिस्तान में संकट की शुरुआत से लेकर युद्ध तक इंदिरा गांधी ने अपना धैर्य बनाए रखा। शरणार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। पूर्वी पाकिस्तान की निर्वासित सरकार कलकत्ता से चल रही थी और भारत में विपक्ष इस सरकार की आधिकारिक मान्यता की मांग कर रहा था। लेकिन इंदिरा गांधी में सब्र था।
वह नहीं चाहती थी कि भारत किसी भी परिस्थिति में युद्ध शुरू करें लेकिन पाकिस्तानी वायुसेना के हमले ने यह सुनिश्चित कर दिया था। हमले के दौरान इंदिरा कलकत्ता में थीं। वह जल्दी दिल्ली पहुंची और राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा, "हम पर एक युद्ध थोपा गया है।" इन शब्दों से हमें इंदिरा की कूटनीति की झलक मिलती है।
1971 के युद्ध में भारत की जीत इसलिए भी संभव हुई क्योंकि इंदिरा ने अपने ही सेना प्रमुख फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पर भरोसा किया था। अप्रैल 1971 में, इंदिरा पूर्वी पाकिस्तान की स्थिति को देखते हुए कुछ सैन्य कदम उठाना चाहती थी लेकिन मानेकशॉ ने इंदिरा के चेहरे पर इससे इनकार कर दिया।
मानेकशॉ को एक कैबिनेट बैठक के दौरान इंदिरा द्वारा 'कुछ करने के लिए' कहा गया था। जिस पर फील्ड मार्शल ने जवाब दिया कि वह 'युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं'। मानेकशॉ ने इंदिरा को चीनी हमले की संभावना, मौसम के कारण बाधाओं और ऐसी स्थिति में सेना की सीमाओं के बारे में बताया।