पाकिस्तान और श्रीलंका को अपने कर्ज के जाल में फांसने वाले चीन के खिलाफ अब दुनिया के कई देश खुलकर सामने आ रहे हैं। यूरोप के सबसे छोटे देशों में शुमार लिथुआनिया ने तो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के महत्वकांक्षी मिशन सीईईसी को छोड़ने का ऐलान कर दिया है। इस परियोजना के तहत चीन मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को मजबूत करना चाहता है। वहीं, चीन को दूसरा झटका हंगरी में लगा है, जहां राजधानी बुडापेस्ट में बनने वाली चीनी यूनिवर्सिटी के कैंपस के विरोध में हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए संसद का घेराव किया।
यूरोप में चीन के खिलाफ बढ़ता विद्रोह आने वाले दिनों में और तेज हो सकता
है। दरअसल, चीन की योजना यूरोप में अमेरिका की खाली की हुई जगह को
भरना है। डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका का यूरोपीय देशों के साथ कई
मुद्दों पर विवाद हुआ था। चीन को इसमें अवसर दिखाई दिया और वह बिना
देर किए यूरोपीय देशों के बीच पैठ जमाने में जुट गया।
पिछले साल के अंत में चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने यूरोपीय देशों
का दौरा कर द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करने की पहल की थी।
इसी शनिवार को हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में हजारों लोगों ने चीन की फुडान यूनिवर्सिटी की कैंपस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए संसद तक मार्च निकाला था। लोगों का कहना है कि चीन अपनी यूनिवर्सिटी के जरिए उनके देश में कम्युनिस्ट विचारधारा को फैलाने काम करेगा। इतना ही नहीं, इस कैंपस के बनने से हंगरी की उच्च शिक्षा के स्तर में कमी आएगी।
हंगरी की सरकार और चीन के बीच काफी मजबूत संबंध है। इसके बावजूद वहां के लोगों के विरोध के कारण इस यूनिवर्सिटी के निर्माण का काम प्रभावित हुआ है। इस यूनिवर्सिटी के कैंपस को करीब 1.8 अरब डॉलर की लागत से बनाया जा रहा है। यह राशि पिछले साल हंगरी में शिक्षा पर खर्च किए गए कुल बजट से कई गुना ज्यादा है। लेकिन, लोगों के बढ़ते विरोध प्रदर्शन के कारण हंगरी की सरकार की मुश्किलें बढ़ गई हैं।
28 लाख की आबादी वाला देश लिथुआनिया ने चीन की सीईईसी फोरम को छोड़ दिया है। इस फोरम को 2012 में चीन ने शुरू किया था। इसमें यूरोप के 17 देश शामिल हैं, जबकि 18वां देश खुद चीन है। लिथुआनिया के विदेश मंत्री गेब्रिलियस लैंड्सबर्गिस ने चीन के सीईईसी फोरम को विभाजनकारी बताया। उन्होंने कहा कि यूरोप के बाकी देशों को भी चीन के इस फोरम को छोड़ देना चाहिए। यूरोप के इस छोटे से देश के कदम को चीन के लिए चुनौती बताया जा रहा है।