भारत के संविधान की प्रस्तावना जब तैयार की गई तो शुरुआत में इसमें सेक्युलर शब्द नहीं था। साल 1976 में इमरजेंसी के दौरान प्रस्तावना में संशोधन किया गया, जिसमें 'सेक्युलर' शब्द को शामिल किया गया। इस पर एक पक्ष का मानना है कि संविधान में इससे पहले भी पंथ निरपेक्षता का भाव शामिल था। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार दिए गए हैं। 42वें संशोधन में 'सेक्युलर' शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे स्पष्ट किया गया।
दूसरे पक्ष का यह मानना है कि संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' जैसे शब्दों का जुड़ना और संविधान में मौलिक कर्तव्यों का शामिल होना एक सकारात्मक बदलाव का उदाहरण है। यही कारण है कि ये बदलाव आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं, लेकिन इन चुनिंदा सकारात्मक प्रावधानों से कभी भी आपातकाल और उसकी आड़ में हुए संविधान संशोधनों की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती थी।
वाजपेयी सरकार ने भी साल 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए कमेटी बनाई। तब इसका विरोध भी हुआ कि यह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करने की कोशिश है। पंथनिरपेक्षता और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश है। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने उस वक्त एक लंबे लेख में केशवानंद भारती केस का जिक्र करते हुए लिखा कि सेक्युलरिज्म भारत की संस्कृति में है।
42वें संशोधन का समर्थन ना करने वालों का मानना है कि भारतीय संविधान की कई धाराओं से धर्मनिरपेक्षता 42वें संशोधन के पहले से ही समाहित है। धारा 14 देश ने नागरिकों को कानून की नजर में एक समान होने का प्रावधान देती है। धारा 15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव करने पर रोक है।
लेकिन कई लोगों को लगता है कि आज लगभग 70 साल बीत जाने के बाद भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के साथ जोड़ने की जगह समुदायों को अलग कर रहा है। इसमें बहुसंख्यकों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि ज्यादातर कानून, पाबंदियां उनकी धार्मिक मान्यताओं और संस्थाओं पर लगाए जाते हैं। इसके अलावा समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का लागू न होना, आदिवासी इलाकों मे जीवन यापन करने वाले लोगों में धर्मांतरण को बढ़ावा देना और अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को संरक्षण देना भी शामिल है।
संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' 'धर्मनिरपेक्ष' एवं 'एकता और अखंडता' आदि शब्द जोड़े गए।
सभी नीति निर्देशक सिद्धांतों को मूल अधिकारों पर सर्वोच्चता सुनिश्चित की गई।
इसके अंतर्गत संविधान में दस मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया।
इसके द्वारा वन संपदा, शिक्षा, जनसंख्या- नियंत्रण आदि विषयों को राज्य सूचि से समवर्ती सूची के अंतर्गत कर दिया गया।
इसके अंतर्गत निर्धारित किया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद और उसके प्रमुख प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार कार्य करेगा।
इसने संसद को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए कानून बनाने के अधिकार दिए और सर्वोच्चता स्थापित की।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान के निर्माण के समय से ही इसमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो सविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।
भारतीय संविधान में पुन: धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए 42 वें सविधान संशोधन अधिनयम, 1976 द्वारा इसकी प्रस्तावना में ‘पंथ निरपेक्षता’ शब्द को जोड़ा गया।
यहाँ पंथनिरपेक्ष का अर्थ है कि भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। उसका अपना कोई धार्मिक पंथ नही होगा तथा देश में सभी नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न ही किसी धार्मिक पंथ का विरोध करेगी।
पंथनिरपेक्ष राज्य धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न कर प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है।
भारत का संविधान किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है।
केरल सरकार ने भूमि सुधार को लेकर दो कानून बनाए। इन कानूनों की मदद से केरल सरकार राज्य में चल रहे मठों पर अपना पूरा नियंत्रण कर उस पर कई तरह की पांबदियां लगाने की तैयारी में थी। सरकार के इस कदम का असर केरल में चल रहे मठों पर पड़ना तय था। ऐसे में केरल के इडनीर नाम के हिंदू मठ के मुखिया केशवानंद भारती ने सरकार को चुनौती देने के लिए कोर्ट पहुंच गए। इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 26 का सहारा लिया। अनुच्छेद 26 के अनुसार भारत के हर नागरिक को धर्म-कर्म के लिए संस्था बनाने, उसकी देख-रेख करने के साथ ही चल और अचल संपत्ति जोड़ने का अधिकार देता है। केशवानंद भारती का तर्क था कि सरकार द्वारा लाए गए नए भूमि सुधार कानून उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है। बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
साल 2015 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी देश को 'सेक्युलर' शब्द के दुरुपयोग के खिलाफ चेताया था। उन्होंने कहा था कि देश में 'सेक्युलर' शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है, इसे बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी के शब्द सेक्युलर का औपचारिक अनुवाद पंथनिरपेक्ष होता है, धर्मनिरपेक्ष नहीं। उन्होंने कहा कि संविधान में 42वां संशोधन कर उसकी प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द डाले गए थे। संविधान का मसौदा तैयार करने वाले समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर इसके पक्ष में नहीं थे। इसलिए शुरूआत में संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को नहीं डाला गया था।
साल 2015 में ही उप-राष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए अपने भाषण में कहा था कि भारत सिर्फ इसलिए सेक्युलर नहीं है, क्योंकि यह हमारे संविधान में है। भारत सेक्युलर है क्योंकि सेक्युलरिज्म हमारे 'डीएनए' में है।
साल 2017 में कर्नाटक के कोप्पल जिले में को ब्राह्मण युवा परिषद के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए भाजपा नेता अनंत कुमार हेगड़े ने कहा कि कुछ लोग कहते हैं कि 'सेक्युलर' शब्द संविधान में है तो आपको मानना पड़ेगा, क्योंकि यह संविधान में है, तो हम इसका सम्मान करेंगे। लेकिन यह आने वाले समय में बदलेगा, संविधान में पहले भी कई बदलाव हुए हैं, अब हम हैं और हम संविधान बदलने आए हैं।
भारत के संविधान की प्रस्तावना से सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म शब्द को हटाने की मांग को लेकर भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। सुप्रीम कोर्ट याचिका पर 23 सितंबर को सुनवाई करेगा। शीर्ष अदालत मामले में नई याचिका के साथ ही, इस संबंध में पहले से दायर दूसरी याचिकाओं पर भी सुनवाई करेगा। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी याचिका में कहा है कि पूर्व प्रधनमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में, वर्ष 1976 में 42वें संविधान संसोधन के जरिए प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़े गए थे। सुब्रमण्यम स्वामी केशवानंद भारती केस का हवाला देते हुए कहा है कि प्रस्तावना संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है, लिहाजा सरकार उसमें बदलाव नहीं कर सकती।
सुब्रमण्यम स्वामी से पहले वकील विष्णु शंकर जैन ने जुलाई, 2020 में संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन के जरिए जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उन्होंने अपनी याचिका में कहा था कि ‘सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म’ राजनीतिक विचार हैं. इन्हें नागरिकों पर थोपा जा रहा है। याचिकाकर्ता जैन ने दलील दी थी कि 1976 में किया गया संशोधन संवैधानिक सिद्धान्तों के साथ.साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषय.वस्तु के विपरीत था। यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा और अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के नजरिए से अवैध था।
जनवरी, 2015 में गणतंत्र दिवस के मौके पर इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्ट्री के एक विज्ञापन को लेकर विवाद छिड़ गया। इस विज्ञापन से सेकुलर और सोशलिस्ट जैसे शब्द गायब थे। इसे लेकर शिवसेना ने केंद्र सरकार से इस विज्ञापन को हटाने की मांग की। शिवसेना के मुताबिक भारत हिंदू राष्ट्र है और कभी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं रहा है। शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत के मुताबिक, 'भारत सेकुलर देश नहीं है. अगर पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है तो भारत भी हिंदू राष्ट्र है।'
कांग्रेस पार्टी ने संविधान से धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद शब्द हटाने की शिवसेना की मांग का कड़ा विरोध किया था। प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता सचिन सावंत ने पत्रकारों से बातचीत में कहा था कि गणतंत्र दिवस पर सूचना व प्रसारण मंत्रालय की तरफ से जारी विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना संबंधी जो तस्वीर छापी गई उसमें धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद शब्द गायब है। ऐसा जानबूझ कर किया गया है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के छुपे एजेंडे का एक हिस्सा है। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद पर भाजपा अपना रुख साफ करे। सावंत ने कहा था कि शिवसेना ने संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद जैसे शब्द को निकालने की मांग कर देश के संविधान पर हमला किया। इससे पहले शिवसेना सांसद संजय राऊत ने कहा था कि संविधान से धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद शब्द को हमेशा के लिए निकाल देना चाहिए।
राकांपा प्रवक्ता नवाब मलिक ने कहा कि 1976 में हुए संविधान संशोधन में यह शब्द शामिल किए गए थे। उस वक्त देश में इमरजेंसी का माहौल था। इस कारण सभी विपक्षी दल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ थे। उस वक्त केवल शिवसेना इंदिरा गांधी के समर्थन में थी। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद भारतीय संविधान की आत्मा है। यह लोगों को धार्मिक व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यदि भाजपा देश के नागरिकों से यह अधिकार छिनना चाहती है तो इसका ऐलान करे।
अपने संसदीय इतिहास में अब तक की सबसे करारी हार से दो-चार हो रही कांग्रेस को नेहरू के समाजवाद की याद आ रही है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की 50वीं पुण्यतिथि पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को समाजवाद की खूब याद आई। नेहरू की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में सोनिया ने कहा- 'पक्की धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी अर्थशास्त्र आज भी कांग्रेस की मूल विचारधारा है। लेकिन मौजूदा सियासी माहौल में कुछ ताकतें नेहरूवाद की इस मूल अवधारणा को चुनौती दे रही हैं।' उनका स्पष्ट संकेत मोदी के नेतृत्व में भाजपा की उभार की ओर था।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं नेता प्रतिपक्ष अखिलेश यादव ने मई, 2022 में भाजपा पर प्रहार करते हुए कहा कि भाजपा लगातार लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर हमला कर इसे बर्बाद कर रही है। हम चाहते हैं कि मुख्य मुद्दों पर चर्चा हो पर भाजपा असल मुद्दों से भटकाना चाहती हैं। वह लोगों को गुमराह करती रहती है। मीडिया से बात करते हुए अखिलेश यादव ने कहा, "भाजपा को अभी भी समाजवाद को समझने की जरूरत है। इस बार लड़ाई न केवल राज्य को बचाने की है बल्कि लोकतंत्र, समाजवाद औरधर्मनिरपेक्षता को बचाने की भी है। भाजपा इन पर हमला कर रही है और संस्थानों को नष्ट कर रही है।"
धर्मनिरपेक्षता की भावना एक उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से परिचालित है।
धर्मनिरपेक्षता सभी को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य करती है।
इसमें किसी भी समुदाय का अन्य समुदायों पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता है।
यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करती है तथा धर्म को राजनीति से पृथक करने का कार्य करती है।
धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य नैतिकता तथा मानव कल्याण को बढ़ावा देना है जो सभी धर्मों का मूल उद्देश्य भी है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता को लेकर आरोप लगाया जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है।अर्थात् इसकी जड़े/ उत्पत्ति ईसाइयत में खोजी जाती हैं।
धर्मनिरपेक्षता पर धर्म विरोधी होने का आक्षेप भी लगाया जाता है जो लोगों की धार्मिक पहचान के लिये खतरा उत्पन्न करती है।
भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता पर आरोप लगाया जाता है कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर अल्पसंख्यकों के मामले में हस्तक्षेप करता है जो अल्पसंख्यकोंं के मन में यह शंका उत्पन्न करता है कि राज्य तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा देता है। ऐसी प्रवृत्तियाँ ही किसी समुदाय में साप्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं।
धर्मनिरपेक्षता को कभी-कभी अति उत्पीड़नकारी रूप में भी देखा जाता है जो समुदायों/व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता में अत्यधिक हस्तक्षेप करती है।
यह वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।