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राजनीति

उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के साथ ही MVA का अंत, जानें 31 महीनों में तीनों पार्टियों का क्या हासिल हुआ? और कहाँ रही कमी?

Maharashtra Political Turmoil: बुधवार को सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। इस्तीफे के बाद लगभग 31 महिने बाद MVA का अंत हो गया। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतने महीनों में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी को क्या हासिल हुआ और क्या नही?

Jyoti Singh

Maharashtra Political Turmoil: महाराष्ट्र में चल रहे सियासी ड्रामें का पर्दा अब गिर गया है। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। इस्तीफे के वक्त उन्होंने कहा कि उनकी रुचि ‘संख्याबल के खेल’ में नहीं है और इसलिए वह अपने पद से इस्तीफा दे रहे हैं।

साल 2019 में बीजेपी को महाराष्ट्र की सत्ता में आने से रोकने के लिए शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी (NCP) ने विरोधी होते हुए महा विकास अघाड़ी (MVA) के रूप में सियासी गठबंधन कर सरकार बनाई थी । इस सरकार में उद्धव ठाकरे के सिर पर मुख्यमंत्री के पद का ताज सजा था, लेकिन 31 महीने के बाद महा विकास अघाड़ी सरकार का अंत हो गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ढाई साल चली महा विकास अघाड़ी सरकार के सियासी प्रयोग में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी ने सियासी तौर पर क्या खोया और क्या पाया? तो चलिए जानते है कि इस गठबंधन की सरकार ने सत्ता में रहकर क्या-क्या किया।

2019 में बीजेपी को हराने के लिए बनाया MVA गठबंधन

साल 2019 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था । एनडीए गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ जीतकर आई थी, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर शिवसेना और बीजेपी के बीच विवाद हो गया और उनकी 25 साल पुरानी दोस्ती टूट गई ।

इसी बात का फायदा कांग्रेस ने उठाया औऱ शिवसेना ने एनसीपी-कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया। विचारधारा के दो विपरित छोर पर खड़ी पार्टियां सियासी मजबूरियों की वजह से साथ आईं और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी (MVA) गठबंधन बना।

सत्ता के मोह में सबकुछ गवां बैठे उद्धव ठाकरे
महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी 1984 में साथ आई और 1989 में गठबंधन किया। हिंदुत्व के मुद्दे ने शिवसेना-बीजेपी को साथ जोड़े रखा था, लेकिन सिंहासन के लालच ने दोनों दलों की राहें अलग करा दी। बीजेपी से दामन छोड़कर महा विकास अघाड़ी के सियासी प्रयोग में उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री जरूर बन गए थे लेकिन उन्हें अपनी छवि से लेकर हिंदुत्व के विचारधारा तक का नुकसान उठाना पड़ा है। राज ठाकरे से लेकर शिवसेना के बागी हुए नेता एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे पर हिंदुत्व के एजेंडे से हटने का आरोप लगाया और कहा कि पार्टी बाला साहेब ठाकरे के मूल उद्देश्यों से भटक गई है।

उद्धव ठाकरे जब तक सत्ता में नहीं आए थे तब तक उनकी छवि बेदाग थी। उद्धव पर कभी भी किसी तरह के भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था और सत्ता में रहते हुए उद्धव ने अपनी इमेज को बरकरार रखा, लेकिन वह पार्टी की हिंदुत्व की छवि नहीं बचा सके।

कांग्रेस-एनसीपी के साथ होने के चलते हिंदुत्व के मुद्दे पर समझौता करने के आरोपों में उद्धव को ढाई साल तक सफाई देनी पड़ी। उद्धव ठाकरे और उनके परिवार को अयोध्या तक जाना पड़ा था। ऐसे में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों की बगावत ने उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। अब उनके पास ना तो सत्ता बची ना ही पार्टी। ऐसे में कह सकते है की मुख्यमंत्री पद के लालच में उद्धव अपना सबकुछ गवां बैठे है।

शिवसेना के राजनीतिक भविष्य पर मंडरा रहा है संकट
एकनाथ शिंद की बगावत से शिवसेना पार्टी पूरी तरह से बिखर गई है और यह पहली बार है जब ठाकरे परिवार को सियासी तौर पर चुनौती मिली है। 40 के करीब शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं तो पार्टी के कई और सांसद भी बागी हो चुके हैं। ऐसे में अब शिवसेना का राजनीतिक भविष्य पर संकट के बादल गहराते नजर आ रहें है। अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या उद्धव ठाकरे संगठन पर से अपना नियंत्रण खो देंगे? या अब शिवसेना बिना ठाकरे परिवार के चलेगी?

बता दें कि साल 1991 में दिग्गज चेहरे छगन भुजबल पार्टी को छोड़कर चले गए, 2005 में नारायण राणे ने पार्टी छोड़ दी, उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे भी 2005 में अलग हो गए लेकिन ठाकरे का दबदबा तब भी कायम रहा। लेकिन शिंदे की बगावत अब उद्धव की शिवसेना कमजोर पार्टी बनकर रह जाएगी।

यही वजह है कि उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ एमएलसी पद से भी इस्तीफे दे दिया है। उद्धव ने कहा है कि वह अब शिवसेना के दफ्तर में तभी बैठेंगे जब वह पार्टी को दोबारा से मजबूत करे पाएंगे। इससे साफ जाहिर हो गया कि उद्धव के सामने अब शिवसेना को बचाए रखने का संकट खड़ा हो गया है।

ढाई साल के इस गठबंधन में कांग्रेस को क्या हासिल हुआ ?
महाराष्ट्र में कांग्रेस ने शिवसेना और एनसीपी के साथ मिलकर सत्ता में भागेदारी तो की, लेकिन सियासी तौर पर पार्टी को नुकसान ही उठाना पड़ा है। शिवसेना के साथ मिलकर गठबंधन बनाना वक्त की जरुरत थी, लेकिन इसके बदले कांग्रेस को ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ।

कांग्रेस ने महाराष्ट्र की सत्ता में हमेशा बड़े भाई की भूमिका निभाई,लेकिन 2019 में बने महा विकास अघाड़ी में वह तीसरे नंबर की जूनियर पार्टनर की भूमिका रही। कांग्रेस को शिवसेना के साथ गठबंधन के लिए समझौता करना पड़ा, जिसमें न तो उसे एनसीपी की तरह डिप्टी सीएम का पद मिला और न ही मलाईदार विभाग।

बता दें कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की स्थिती कमजोर है ऐसे में उद्धव के फैसले के बाद राज्य में कांग्रेस की स्थिती और खराब हो सकती है। एक समय था जब कांग्रेस श में एकछत्र राज करती थी, 2014 के बाद से उसी पार्टी का ग्रॉफ लगातार नीचे जा रहा है।

क्या महाराष्ट्र में मजबूती से टिक पाएगी NCP?

एमवीए (MVA) सरकार गिरने के बाद सवाल उठता है कि राज्य में कम बहुमत वाली पार्टियों का अब क्या होगा? क्या अब वह राज्य में अपनी स्थिती को मजबूत रख पाएंगी और अपना अस्तित्व कायम करने में सफल हो पाएंगी?

बताया जा रहा है कि शरद पवार अपनी पार्टी एनसीपी (NCP) को बेहतर स्थिति में रख सकते हैं। क्योंकि पार्टी के पास इतनी क्षमता है कि वह कांग्रेस के कमजोर होने से बने स्पेस को कवर कर सकते है। अंदाजा लगाया जा रहा है की भविष्य में महाराष्ट्र में राजनीतिक में भाजपा बनाम एनसीपी का दृश्य देखने को मिल सकता है। हालांकि, सत्ता से हटने का नुकसान भी एनसीपी को उठाना पड़ेगा।

उद्धव सरकार को कंट्रोल करते रहे शरद पवार

महा विकास अघाड़ी के गठबंधन में उद्धव भले ही मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन इस सरकार की चाबी शरद पवार ने अपने हाथों में ही रखी। उद्धव सरकार के मलाईदार मंत्रालय और गृह जैसा भारी भरकम विभाग भी एनसीपी ने अपने पास रखा। उद्धव ठाकरे अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से भी खुद को सीमित रखते हैं, लेकिन शरद पवार सक्रिय रहे। ऐसे में महाराष्ट्र सरकार पर कई बार आरोप लगे कि शरद पवार रिमोट कन्ट्रोल से उद्धव सरकार को चला रहे हैं। उद्धव ठाकरे के सत्ता से बेदखल होते ही एनसीपी भी सरकार से बाहर हो गई है।

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