एक तरफ इस देश में महिला और पुरुष के बीच असमानता को खत्म करने के आंदोलन चलाये जाते हैं। आये दिन स्त्रीवाद का झंडा उठाने वाली लाल बिंदी गैंग द्वारा भारतीय समाज को पुरुषवादी और स्त्रीविरोधी कह कर कोसा जाता है। बात बात पर स्त्री पुरुष बराबर हैं ये नारे दिए जाते हैं।
कहीं पर भी स्त्री पुरुष से कमतर होती है तो ये रोना रोया जाता है कि आखिर कब स्त्रियों को पुरुष के बराबर समझा जाएगा। अच्छी बात है होना भी यही चाहिए। पुरुषों ने भरसक कोशिशें भी करी औरतों को अपनी बराबरी का दर्जा देने के लिए , न सिर्फ मौखिक रूप से बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण देश के हर मोर्चे पर स्त्रियों के सहभागिता का बढ़ाना है।
मामला गुजरात के गांधीनगर में तलाक़ से जुड़ा है। पति को पत्नी के अवैध संबंध होने का शक था। अवैध सम्बन्धो के चलते दूरियां बनी। पत्नी 2014 से अपने बेटे के साथ अलग रही थी। पति कहना था कि इस दौरान भी उसके कई पुरुषों के साथ अवैध सम्बन्ध रहे। किन्तु पति से आर्थिक भरण पोषण की मांग करती रही।
यहां ये बात भी आपको बता दें कि पत्नी की आय पति से लगभग दोगुनी है। पत्नी खुद के और बेटे के भरण पोषण में सक्षम है। अलगाव इतना कि बेटा पिता को न पहचानता है न उससे कभी मिला। पत्नी की लगातार पैसे की मांग से तंग आकर पति ने फॅमिली कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दी।
फैमली कोर्ट ने पति के हक में फैसला सुनाते हुए कहा कि पत्नी अपने पति के साथ नहीं रहती ऐसी शादी का कोई मतलब नहीं है भरण- पोषण लेकर अलग हो जाये। जिसके बाद पत्नी हाई कोर्ट पहुंच गई और फैसले को चुनौती देकर पति से तलाक से बदले जीवन भर खुद के और बेटे के भरण पोषण की मांग रखी।
जिस पर हाई कोर्ट के जस्टिस जेबी पारडीवाला और निरल मेहता की खंडपीठ ने नसीहत देते हुए फैसले में कहा कि ,भले ही पत्नी दूसरे पुरुषों से सम्बन्ध रखे , भले वह पति से सालों से अलग रहे भले ही पति से दो नहीं चार गुना भी ज्यादा पैसे कमाए मगर तलाक लेना या न लेना दोनों ही परिस्थिति में पत्नी अपने पति से जीवन भर के लिए भरण पोषण पाने की हक़दार है। पति चाहे तो जीवन भर का खर्च एक मुश्त रकम के रूप में दे सकता है। इस फैसले को स्वीकार करते हुए पति ने 8 लाख रुपये की रकम एक मुश्त पत्नी को भरण पोषण के लिए देने का प्रस्ताव रखा।
एक स्याह पहलू ऐसा है मगर जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। अगर किसी का ध्यान जाता भी है तो कोई आवाज नहीं उठता। जाने क्यों जब भी आर्थिक योगदान की बात आती है, महिलावादी नेताओ से लेकर काम कर पैसे कमाने वाली औरतें तो वैसे भी नहीं चाहती कि इस हिस्से में पुरुषों के बराबर उन्हें योगदान देना पड़े।
देश की न्याय व्यवस्था भी ऐसी स्थिति में पुरुषों के प्रति अन्यायपूर्ण और लगभग बहरे की तरह मानवीय समानता के वसूलों को दरकिनार कर के स्त्रियों के हक़ में ही फैसला सुना देती है।
पुरुष के पास ऐसी स्थिति में मजबूरन अपनी समानता को कानूनी शिकंजे में घुटने टेकते देखना पड़ता है। समानता की आवाजें जब भी आर्थिक मोर्चे पर पुरुषों के साथ समानता के लिए जरुरत पड़ती है, खामोश हो जाती है। क्योंकि पुरुषों से जुडी समस्याओं को इस देश की मानसिकता में केवल दीवार पर लिखे यौन समस्या तक सीमित कर दिया जाता है।
जाहिर है जब देश और समाज ही पुरुषों के समस्याओं , अधिकारों को इतने संकुचित खांचे में कैद करती है तो फिर उसके बराबरी के अधिकारों की सुनवाई और न्याय का सवाल ही नहीं उठता है। इसी स्याह पहलू से जुड़ा एक मामला गुजरात से आया। जहां एक पति - पत्नी के तलाक के मामले में हाई कोर्ट ने फॅमिली कोर्ट के आदेश को बदल कर नया फैसला पत्नी के हक में सुना दिया।
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