Rajasthan

चुनाव की धरा पर, वसुंधरा की चाल मुश्किल

तकरीबन तीन साल हाशिए पर रही वसुंधरा राजे फिर अपना मुकाम पाने के लिए राजनीतिक गलियारों में धमक गई हैं। अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, खुद को एक बार फिर मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर वो सत्ता हासिल करने की उम्मीद में हैं।

Lokendra Singh Sainger
  • विकल्प की तलाश जोरों पर, हिंदुत्व के कार्ड पर भाजपा लड़ेगी चुनाव तो किसी भी चेहरे को ला सकती है आगे

  • अधिकांश विधायक और कार्यकर्ता वसुंधरा के शाही अंदाज से खफा

  • केन्द्रीय नेतृत्व तलाश रहा है इसका तोड़

केन्द्रीय नेतृत्व से बनी दूरी को पाटने की कोशिश में भी लगातार जुट गई हैं। अपने जन्मदिन पर रक्तदान में जुटाई भीड़ के जरिए शक्ति प्रदर्शन की बात करें या हाल ही उदयपुर में कन्हैया हत्याकाण्ड के बाद उनके परिचितों से मिलने की, उनकी सक्रियता बता रही है कि वो फिर से भाजपा का बड़ा चेहरा बनने की धुन में हैं। हालांकि पेंच बहुत है, हिंदुत्व के साथ मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने का कार्ड एक बार फिर भाजपा राजस्थान में खेल सकती हैं।

पिछले दिनों जिस तरह राज्यसभा का सांसद बनने पर वसुंधरा राजे ने घनश्याम तिवाड़ी के प्रति विशेष सम्मान दिखाया था। वो इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि समय बदले तो परिस्थितियों के साथ भी समझौता करना पड़ता है। वसुंधरा के साथ धनश्याम तिवाड़ी की लम्बी लड़ाई चली, तिवाड़ी को पार्टी छोडकर खुद की नई पार्टी बनानी पड़ी। जैसे-तैसे वापसी हुई, अहम को किनारे रखकर वसुंधरा खुद घनश्याम तिवाड़ी से मिलने पहुंची, जो संकेत देता है कि वो तमाम विरोधी गुटों को अपने पक्ष में कर आगामी चुनाव में फिर मुख्यमंत्री पद की दावेदार बनना चाहती हैं।

यह भी सही है कि राजस्थान को लेकर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की बहुत तेजी के साथ सोच बदल रही है। वर्ष 2018 में राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने वहां नई लीडरशिप के साथ आगे बढऩे का फैसला किया था। सतीश पूनिया को पूरी कमान संभला दी थी। ऐसे में वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति में अलग-थलग पड़ गई थीं। उनके विकल्प के तौर पर सतीश पूनिया बहुत ताकतवर होकर उभरे थे।

राज्य में जितने भी वसुंधरा विरोधी खेमे थे, उन सबने गोलबंदी कर ली थी और उन्हें किसी न किसी रूप में दिल्ली से ताकत भी मिल रही थी। अब विधानसभा चुनाव के लिए कम वक्त बचा है तो केंद्रीय नेतृत्व इस नतीजे पर फिर से विमर्श करने लगा है। वसुंधरा राजे को हाशिए पर रखकर विधानसभा का चुनाव जीतने की गणित/रणनीति पर मंथन जारी है। वर्ष 2018 के बाद से राज्य में सात विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए, जिसमें अब तक बीजेपी को सिर्फ एक पर ही जीत मिल पाई है। अब पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को शायद यह भी लग रहा है कि सतीश पूनिया पर भरोसा महंगा पड़ सकता है।

इसी के चलते केंद्रीय नेतृत्व के साथ वसुंधरा राजे का संवाद एक बार फिर से बढ़ा है। खुद प्रधानमंत्री से भी उनकी मुलाकात हुई है। इस तरह के संकेत मिल रहे हैं कि तत्काल उन्हें सीएम का चेहरा तो घोषित नहीं किया जाएगा, लेकिन उनके लिए किसी बड़ी भूमिका की तलाश हो रही है, जिसके जरिए वसुंधरा की नाराजगी खत्म की जा सके और वह 2023 के चुनाव के लिए सक्रिय भागीदारी निभाएं।

अलग अंदाज से हमेशा निशाने पर

वसुंधरा राजे का राजनीति करने का अपना अंदाज़ है। वे अपने काम में किसी भी प्रकार की दखलंदाज़ी बर्दाश्त नहीं करतीं। उनके करीबी राजेंद्र राठौड़ कई बार सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि राजस्थान में वसुंधरा राजे ही भाजपा हैं और भाजपा ही वसुंधरा राजे है। राजे के अब तक के सियासी सफर से यह साबित होता है कि प्रदेश भाजपा में उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, चाहे टिकट बंटवारा हो या मंत्रिमंडल के सदस्यों का चयन।

सत्ता मिलने के बाद तो वसुंधरा ने संघ की पसंद और वरिष्ठता को दरकिनार कर घनश्याम तिवाड़ी, प्रताप सिंह सिंघवी, नरपत सिंह राजवी, गुरवंत सिंह, सूर्यकांता व्यास व बाबू सिंह राठौड़ सरीखे वरिष्ठ विधायकों को मंत्रिमंडल में जगह तक नहीं दी थी। भाजपा के कई नेता वसुंधरा की कार्यशैली की वजह से पार्टी छोडक़र राजनीति की अलग राह पकड़ चुके हैं। इनमें डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, घनश्याम तिवाड़ी, हनुमान बेनीवाल जैसे नाम शामिल रहे है।

शिकायतें भी बहुत

वसुंधरा विरोधी खेमे को यह शिकायत लंबे समय से है कि सत्ता और संगठन में जमीनी नेताओं को तवज्जो देने के बजाय अपनों को उपकृत करती हैं, उनका कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद कभी नहीं रहा। ऐसे में वसुंधरा का विकल्प तलाशना भाजपा की मजबूरी भी मानी जा सकती है। यह भी सही है कि पार्टी पहले भी कई बार वसुंधरा को हटाने की सोच चुकी है, लेकिन विधायकों के टूटने के डर से ऐसा नहीं कर पाई। पार्टी के सामने राजे को हटाने से ज्यादा बड़ी चुनौती यह है कि उनकी जगह किसे लाया जाए, यह फांस अब तक अटकी है, बाकी जितने भी नाम हैं, उनमें से किसी का भी इतना बड़ा रुतबा नहीं है कि पूरी पार्टी सहर्ष उनका नेतृत्व स्वीकार कर ले।

हिंदुत्व के साथ मंदिर-मंदिर

पिछले कुछ महीनों से वसुंधरा पूरी तरह सक्रिय हो गई हैं। पार्टी के कार्यक्रमों के अलावा मंदिर-मंदिर जाकर हिंदुत्व की भी अलख जगा रही हैं। अब तक गहलोत सरकार पर चुप्पी साधे बैठी वसुंधरा, अब बयान देने में आगे हैं। हाल ही में उन्होंने गहलोत सरकार पर आरोप लगाया कि वे मंदिरों के विकास पर खर्च नहीं करते। इस बयान ने साफ कर दिया है कि यूपी की तर्ज पर राजस्थान में भी बीजेपी हिंदुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ेगी।

करौली में हुई घटना के बाद भाजपा का फोकस हिंदुत्व हो गया है। यही वजह है कि भाजपा की राजनीति अब करौली और हिंदुत्व के ईद- गिर्द घूम रही है, हालांकि कांग्रेस भी इस मुद्दे पर पलटवार करने की लगातार कोशिश में जुटी है। राजे का एक अभियान है जनता, अपने समर्थक नेताओं -कार्यकर्ताओं के साथ संवाद, इस अभियान की कड़ी में राजे ने सबसे पहले देवदर्शन यात्रा की और कोरोना काल में दिवगंत हुए पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के घर जाकर शोक व्यक्त करने को जनसंपर्क का जरिया बनाया। मेवाड़ से लेकर ढूंढाड़ और हाड़़ौती में मंदिर दर्शन के जरिए अपनी टीम को राजे ने फिर जिंदा कर दिया है, आम लोगों के बीच अपनी छवि को भी टटोल लिया है।

विकल्प की मुश्किल

चुनाव जीतने का चेहरा वसुंधरा को फिर रखकर हारने की आशंका भले ही न हो, लेकिन वसुंधरा के साथ विधायक व वरिष्ठ साथियों का अब तालमेल बैठना मुश्किल हो सकता है। वसुंधरा के शासन करने का तरीका अलग है, वो अपने आगे किसी की नहीं चलने देतीं, यह सबको पता है। सबको यह भी साफ हो गया कि सतीश पूनिया के नेतृत्व में इस तरह की राजशाही नहीं दिखी। अब चुनाव जीतने की चाबी को वसुंधरा को ही समझा जाए तो बात अलग है। कई और नाम भी है, जिनको आगे लाकर चुनाव लड़कर भाजपा जीत सकती है। खैर देखना है कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व क्या करता है।

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