वरिष्ठ पत्रकार समीरात्मज मिश्र की यूपी से खास रिपोर्टः UP ELECTION 2022: उत्तर प्रदेश में सात चरणों में मतदान की लंबी प्रक्रिया खत्म हुई और अब सबकी निगाहें 10 मार्च को होने वाली मतगणना पर लगी हैं. इस बीच, तमाम एक्जिट पोल्स ने लोगों की धड़कनें बढ़ा दी हैं क्योंकि एक्जिट पोल्स शायद इस तरह आ रहे हैं जिनकी परिणाम के तौर पर लोग अपेक्षा नहीं कर रहे हैं. बहरहाल, परिणाम आने में अब ज्यादा समय नहीं है और जीत-हार का फैसला अगले कुछ घंटों में हो ही जाएगा, लेकिन ये चुनाव कुछ राजनीतिक दलों, खासकर बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी के भविष्य को भी तय करने वाले होंगे.
जहां तक BSP का सवाल है, तो कुछ एक्जिट पोल्स में उसके मत प्रतिशत को काफी कम यानी लगभग 12-13 फीसद के आस-पास दिखाया जा रहा है और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि बीएसपी के बचे-खुचे मतदाताओं ने भी अब बीजेपी की ओर रुख कर लिया है. हालांकि पूरे समय जमीन पर रहने वाले पत्रकारों को इस बात पर भरोसा नहीं है कि बीएसपी का वोटर मायावती को छोड़कर कहीं और गया है. ऐसे पत्रकारों का कहना है कि कम से कम स्थिति में भी बीएसपी 18-19 फीसद वोट जरूर हासिल कर लेगी, सीटों की संख्या भले ही कितनी हो.
दरअसल, बीएसपी को इतना कमतर आंकने या फिर चुनाव के दौरान उसके राजनीतिक लड़ाई से बाहर रहने के कयास इस वजह से भी लगाए जाते रहे क्योंकि उसके प्रचार-प्रसार में उस उत्साह की कमी दिख रही थी जो कि पिछले चुनावों में रहा करती थी. पिछले साल अगस्त में अयोध्या में ब्राह्मण सम्मेलन करने के बाद ऐसा लगा कि विधानसभा चुनाव में बीएसपी ही मुख्य रूप से बीजेपी के मुकाबले में रहेगी लेकिन बीएसपी नेता मायावती का अचानक लगभग निष्क्रिय हो जाना और इस बीच समाजवादी पार्टी का सक्रिय हो जाने के कारण मुख्य लड़ाई में सपा ही आ गई. यह स्थिति पूरे चुनाव के दौरान रही और अब उम्मीद लगाई जा रही है कि परिणाम भी कुछ ऐसे ही आने वाले हैं.
विधानसभा चुनावों के बाद आए एग्जिट पोल्स में भी साफ दिख रहा है कि बीएसपी की जमीन मजबूत नहीं हो पाई है, भले ही उसका समर्पित मतदाता अभी भी उसके साथ जुड़ा है. दरअसल, बीएसपी इन समर्पित मतदाताओं की बदौलत सीटों में बढ़ोत्तरी या सत्ता में वापसी तभी कर पाती थी जब उसके पास अतिरिक्त मतदाता समूहों, जातियों और अल्पसंख्यकों का वोट मिलता था. ये समीकरण इस बार उससे दूर दिख रहे हैं.
करीब डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश में मजबूत तरीके से शासन करने वाली बीएसपी प्रमुख मायावती आज अपने मजबूत जनाधार को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन्हें चुनौती देने के लिए भीम आर्मी और उनके राजनीतिक संगठन आजाद समाज पार्टी से भी आने वाले दिनों में कड़ी चुनौती मिलना तया है. ऐसे में राजनीतिक के जानकारों का कहना है कि यदि मायावती को दलितों की राजनीति को आगे ले जाना है उन्हें नेतृत्व को अपने परिवार से बाहर सौंपना होगा और अप नी पहुंच को समाज के अन्य तबकों तक भी मजबूती से ले जाना होगा, अन्यथा उनकी जगह लेने को कांग्रेस और आजाद समाज पार्टी जैसे दल तैयार बैठे हैं.
सोमवार को विधानसभा चुनाव में आखिरी चरण के मतदान खत्म होने के बाद आए एक्जिट पोल्स के रुझान से पता चलता है कि बीएसपी की जमीन और दरक गई है और उसका मत प्रतिशत भी इस बार कम हो सकता है. हालांकि सीटों के लिहाज से तो वो 2017 के विधानसभा चुनाव में भी काफी कमजोर हो गई थी लेकिन मत प्रतिशत बीस के आस-पास बरकरार रहा और लोक सभा चुनाव में उसे दस सीटें भी हासिल हुई थीं. एक्जिट पोल्स पर हालांकि बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता है लेकिन राजनीतिक जानकारों और जमीनी रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों का भी कहना है कि बीएसपी के पक्ष में जाटव दलित मतदाताओं के अलावा अन्य समुदाय के लोगों ने बहुत कम संख्या में मतदान किया है. यह बात अलग है कि बीएसपी ने बड़ी संख्या में मुस्लिम, ब्राह्मण और अन्य लोगों को टिकट दिए थे.
दरअसल, पिछले कुछ सालों में बीएसपी का जनाधार लगातार जिस तरह से कमजोर हुआ है और कल्याणकारी योजनाओं के जरिए बीजेपी ने जिस तरह से दलितों में पैठ बनाई है, उससे बीएसपी का जनाधार लगातार सिकुड़ता गया. बावजूद इसके, अब तक उसके समर्पित या कोर मतदाताओं तक कोई भी पार्टी पहुंच नहीं बना पाई. लेकिन इस चुनाव में यदि बीएसपी ने सम्मानजनक सीटें न हासिल कीं तो आने वाले दिनों में उस कोर मतदाता का भी मोहभंग हो सकता है और वो अन्य पार्टियों का रुख कर सकता है. जानकारों का मानना है कि यूपी में अभी कांग्रेस पार्टी की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है लेकिन पार्टी नेता प्रियंका गांधी जिस तरीके से बिना जनाधार के भी धुआंधार प्रचार कर रही हैं और लोगों के बीच जा रही हैं, उसे देखते हुए इसमें आश्चर्य नहीं कि दलित मतदाता एक बार फिर उसकी ओर आकर्षित हो.
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, बीएसपी को समझ लेना चाहिए कि सोशल इंजीनियरिंग के जरिए उसे जो सत्ता कभी मिलती थी, वो इंजीनियरिंग फिलहाल कमजोर हो गई है और उसके अपने वोट बैंक में भी सेँधमारी हो चुकी है. विश्लेषक इसके लिए नेतृत्व संकट को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. बीएसपी में सुप्रीमो मायावती के अलावा सिर्फ महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ही दिखते हैं, इसके अलावा ज्यादातर नेता या तो पार्टी छोड़ चुके हैं और जो हैं भी, वो कहीं दिखाई नहीं देते.
हालांकि बीएसपी के नेताओं का कहना है कि यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को कमतर करके आंका जा रहा है जबकि ऐसा है नहीं. वाराणसी में राजस्थान से आए एक बीएसपी नेता डॉक्टर देशराज कहते हैं, “मीडिया हमारी पार्टी को इग्नोर कर रहा है लेकिन हमारा वोटर शांत है. जब परिणाम आएंगे तो दिखेगा कि बीएसपी कैसे सरकार बना रही है या फिर किंग मेकर बन रही है. जो लोग ये गलतफहमी पाले हुए हैं कि बीएसपी का वोट कहीं और ट्रांसफर हो रहा है, उन्हें दस मार्च को निराशा ही हाथ लगने वाली है.”
बीएसपी के नेता पार्टी की वापसी की उम्मीद ठीक उसी तर्ज पर कर रहे हैं जैसे 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी लेकिन अगले ही लोकसभा चुनाव में यानी 2019 में उसने दस सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन यह स्थिति तब थी जब समाजवादी पार्टी से उसका गठबंधन था. इस बार समाजवादी पार्टी सत्तारूढ़ बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है जबकि बीएसपी के ऊपर यह आरोप भी लग रहे हैं कि वो सपा को हराने के लिए बीजेपी की मदद कर रही है.
बहरहाल, नतीजे दस मार्च को आएंगे और यह पता चल जाएगा कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिल रही हैं और कौन सी पार्टी सरकार बना रही है या फिर कौन सी पार्टी किंग मेकर बन रही है. लेकिन बीएसपी के भविष्य पर सभी की निगाहें हैं कि वो अपने मत प्रतिशत को बरकरार रखती है या फिर इसमें वास्तव में एक और बड़ी सेंध लग चुकी है.
समीरात्मज मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. लंबे समय तक BBC में संवाददाता रहे हैं. इस समय जर्मनी के पब्लिक ब्रॉडकास्टर DW से जुड़े हैं और यूट्यूब चैनल ‘द ग्राउंड रिपोर्ट’ के संपादक हैं.
ये एनालेसिस यूपी चुनाव को लेकर बन रही श्रृंखला का लेख है, इस श्रृंखला में आगे भी यूपी चुनाव 2022 के राजनैतिक समीकरणों और जनता के रुझान को लेकर के समीक्षा निंरतर जारी रहेगी।